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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद कृष्ण वासुदेव से यह आश्वासन पाने के पश्चात् कुन्ती देवी, उनसे विदा होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । कुन्ती देवी के लौट जाने पर कृष्ण वासुदेव ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम द्वारका में जाओ' इत्यादि कहकर द्रौपदी के विषय में घोषणा करने का आदेश दिया । जैसे पाण्डु राजा ने घोषणा करवाई थी, उसी प्रकार कृष्ण वासुदेव ने भी करवाई । यावत् उनकी आज्ञा कौटुम्बिक पुरुषों ने वापिस की । किसी समय कृष्ण वासुदेव अन्तःपुर के अन्दर रानियों के साथ रहे हुए थे । उसी समय वह कच्छुल्ल नारद यावत् आकाश से नीचे उतरे । यावत् कृष्ण वासुदेव के निकट जाकर पूर्वोक्त रीति से आसन पर बैठकर कृष्ण वासुदेव से कुशल वृत्तान्त पूछने लगे ।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से ग्रामों, आकरों, नगरों आदि में प्रवेश करते हो, तो किसी जगह द्रौपदी देवी की श्रुति आदि कुछ मिली है ? तब कच्छुल्ल नारद ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! एक बार मैं धातकीखण्ड द्वीप में, पूर्व दिसा के दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी में गया था । वहाँ मैंने पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी जैसी देखी थी ।' तब कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से कहा-'देवानुप्रिय ! यह तुम्हारी ही करतूत जान पड़ती है ।' कृष्ण वासुदेव के द्वारा इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी विद्या का स्मरण किया । स्मरण करके जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में चल दिए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाकर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर जाओ और पाण्डु राजा को यह अर्थ निवेदन करो'हे देवानुप्रिय ! धातकीखण्ड द्वीप में पूर्वार्ध भाग में, अमरकंका राजधानी में, पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का पता लगा है । अतएव पांचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर खाना हों और पूर्व दिशा के वेतालिक के किनारे मेरी प्रतीक्षा करें ।'
तत्पश्चात् दूत ने जाकर यावत् कृष्ण के कथनानुसार पाण्डवों से प्रतीक्षा करने को कहा । तब पांचों पाण्डव वहाँ जाकर यावत् कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और सान्नाहिक भेरी बजाओ ।' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने सामरिक भेरी बजाई । सानाहिक भेरी की ध्वनि सुनकर समुद्रविजय आदि दस दसार यावत् छप्पन हजार बलवान् योद्धा कवच पहन कर, तैयार होकर, आयुध और प्रहरण ग्रहण करके कोई-कोई घोड़ों पर सवार होकर, कोई हाथी आदि पर सवार होकर, सुभटों के समूह के साथ जहाँ कृष्ण वासुदेव की सुधर्मा सभा थी और जहां कृष्ण वासुदेव थे वहाँ आये । आकर हाथ जोड़कर यावत् उनका अभिनन्दन किया ।
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए । कोरंट वृक्ष के फूलों की मालाओं से युक्त छत्र उनके मस्तक के ऊपर धारण किया गया । दोनों पार्यों में उत्तम श्वेत चामर ढोरे जाने लगे । वे बड़े-बड़े अश्वों, गजों, रथों और उत्तम पदाति-योद्धाओं की चतुरंगिणी सेना और अन्य सुभटों के समूहों से परिवृत होकर द्वारका नगरी के मध्य भाग में होकर निकले । जहां पूर्व दिशा का वेतालिक था, वहाँ आए । वहाँ आकर पाँच पाण्डवों के साथ इकट्ठे हुए (मिले) फिर पड़ाव डाल कर पौषधशाला में प्रवेश किया । प्रवेश करके सुस्थित देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करते हुए स्थित हुए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव का अष्टमभक्त पूरा होने पर सुस्थित देव यावत् उनके समीप आया । उसने कहा-'देवानुप्रिय !