Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 208
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१७६ तत्पश्चात् पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर यह आदेश दिया- 'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और पथ आदि में जोर-जोर के शब्दों से घोषणा करते-करते इस प्रकार कहो - हे देवानुप्रियो आकाशतल पर सुख से सोये हुए युधिष्ठिर राजा के पास से द्रौपदी देवी को न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष किन्नर, महोरग या गंधर्व देवता ने हरण किया है, ले गया है, या खींच ले गया है ? तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति बताएगा, उस मनुष्य को पाण्डु राजा विपुल सम्पदा का दान देंगे - इनाम देंगे । इस प्रकार की घोषणा करो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ ।' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार घोषणा करके यावत् आज्ञा वापिस लौटाई । पूर्वोक्त घोषणा कराने के पश्चात् भी पाण्डु राजा द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति यावत् समाचार नपा सके तो कुन्ती देवी को बुलाकर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिये ! तुम द्वारवती नगरी जाओ और कृष्ण वासुदेव को यह अर्थ निवेदन करो । कृष्ण वासुदेव ही द्रौपदी देवी की मार्गणा - करेंगे, अन्यथा द्रौपदी देवी की श्रुति, क्षुति या प्रवृत्ति अपने को ज्ञात हो, ऐसा नहीं जान पड़ता ।' २०७ पाण्डु राजा के द्वारका जाने के लिए कहने पर कुन्ती देवी ने उनकी स्वीकार की । वह नहा-धोकर बलिकर्म करके, हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर निकली । निकल कर कुरु देश के बीचोंबीच होकर जहाँ सुराष्ट्र जनपद था, जहाँ द्वारवती नगरी थी और नगर के बाहर श्रेष्ठ उद्यान था, वहाँ आई । हाथी के स्कंध से नीचे उतरी । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रियो ! तुम जहां द्वारका नगरी है वहाँ जाओ, द्वारका नगरी के भीतर प्रवेश करके कृष्ण वासुदेव को दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहना - 'हे स्वामिन् ! आपके पिता की बहन कुन्ती देवी हस्तिनापुर नगर से यहाँ आ पहुँची हैं और तुम्हारे दर्शन की इच्छा करती हैं - तुमसे मिलना चाहती है ।' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कृष्ण वासुदेव के पास जाकर कुन्ती देवी के आगमन का समाचार कहा । कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों के पास से कुन्ती देवी के आगमन का समाचार सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुए । हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ कुन्ती देवी थी, वहाँ आये, हाथी के स्कंध से नीचे उतर कर उन्होंने कुन्ती देवी के चरण ग्रहण किये - । फिर कुन्ती देवी के साथ हाथी पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के मध्य भाग में होकर यावत् अपने महल में प्रवेश किया । कुन्ती देवी जब स्नान करके, बलिकर्म करके और भोजन कर चुकने के पश्चात् सुखासन पर बैठी, तब कृष्ण वासुदेव ने इस प्रकार कहा - 'हे पितृभगिनी ! कहिए, आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ?' तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा - 'हे पुत्र ! हस्तिनापुर. नगर में युधिष्ठिर आकाशतल पर सुख से सो रहा था । उसके पास से द्रौपदी देवी को न जाने कौन अपहरण करके ले गया, अथवा खींच ले गया । अतएव हे पुत्र ! मैं चाहती हूं कि द्रौपदी देवी की मार्गणा - गवेषणा करो ।' तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने अपनी पितृभगिनी कुन्ती से कहा- अगर मैं कहीं भी द्रौपदी देवी की श्रुति यावत् पाऊँ, तो मैं पाताल से, भवन में से या अर्धभरत में से, सभी जगह से, हाथों-हाथ ले आऊँगा ।' इस प्रकार कह कर उन्होंने कुन्ती का सत्कार किया, सम्मान किया, यावत् उन्हें विदा किया ।

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