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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१७४
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आने पर वह खड़ी नहीं हुई । उसने उनकी उपासना भी नहीं की ।
१७५] तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित प्रार्थित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'अहो ! यह द्रौपदी अपने रूप यौवन लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अतएव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरी उपासना नहीं करती। अतएव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है । इस प्रकार नारद ने विचार करके पाण्डु राजा से जाने की आज्ञा ली । फिर उत्पतनी विद्या का आह्वान किया । उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर योग्य गति से लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर, पूर्व दिशा के सम्मुख, चलने के लिए प्रयत्नशील हुए । उस काल और उस समय में धातकीखण्ड नामक द्वीप में पूर्व दिशा की तरफ के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी थी । उस में पद्मनाभ नामक राजा था । वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान सार वाला था, (वर्णन) उस पद्मनाभ राजा के अन्तःपुर में सात सौ रानियाँ थीं । उसके पुत्र का नाम सुनाभ था । वह युवराज भी था। उस समय पद्मनाभ राजा अन्तःपुर में रानियों के साथ उत्तम सिंहासन पर बैठा था ।
तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ राजा पद्मनाभ का भवन था, वहाँ आये । पद्मनाभ राजा के भवन में वेगपूर्वक शीघ्रता के साथ उतरे । उस समय पद्मनाभ राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा । देखकर वह आसन से उठा । उठ कर अर्ध्य से उनकी पूजा की यावत् आसन पर बैठने के लिए उन्हें आमंत्रित किया । तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद ने जल से छिड़काव किया, फिर दर्भ बिछा कर उस पर आसन बिछाया और फिर वे उस आसन पर बैठे । यावत् कुशल-समाचार पूछे । इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपनी रानियों में विस्मित होकर कच्छुल्ल नारद से प्रश्न किया-'देवानुप्रिय ! आप बहुत-से ग्रामों यावत् गृहों में प्रवेश करते हो, तो देवानुप्रिय ! जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा अन्तःपुर आपने पहले कभी कहीं देखा है ?
तत्पश्चात् राजा पद्मनाभ के इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद थोड़ा मुस्कराए । मुस्करा कर बोले- पद्मनाभ ! तुम कुएँ के उस मेंढ़क के सदृश हो ।' देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कुएँ को मेंढ़क ? मल्ली अध्ययन समान कहना । 'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप में, भरतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पांच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी रूप से यावत् लावण्य से उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट शरीखाली है। तुम्हारा यह सारा अन्तःपुर द्रौपदी देवी के कटे हुए पैर के अंगूठे की सौवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकता ।' इस प्रकार कह कर नारद ने पद्मनाभ से जाने की अनुमति ली । यावत् चल दिये । तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा, कच्छुल्ल नारद से यह अर्थ सुन कर और समझ कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन और लावण्य में मुग्ध हो गया गृद्ध हो गया, लुब्ध हो गया, और (उसे पाने के लिए) आग्रहवान हो गया । वह पौषधशाला में पहुँचा । पौषधशाला को यावत् उस पहले के साथी देव से कहा-देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में, यावत् द्रौपदी देवी उत्कृष्ट शरीर वाली है । देवानुप्रिय ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी यहाँ ले आई जाय ।'
तत्पश्चात् पूर्वसंगतिक देव ने पद्मनाभ से कहा-'देवानुप्रिय ! यह कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि द्रौपदी देवी पाँच पाण्डवों को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ