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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तब वे वासुदेव वगैरह बहुत से राजा यावत् अपने-अपने राज्यों एवं नगरों को लौट गए ।
[१७४] तत्पश्चात् पाँच पाण्डव द्रौपदी देवी के साथ अन्तःपुर के परिवार सहित एकएक दिन बारी-बारी के अनुसार उदार कामभोग भोगते हुए यावत् रहने लगे । पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाँण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे । इधर कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे । वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत जान पड़ते थे, परन्तु भीतर से कलहप्रिय होने के कारण उनका हृदय कलुषित था । ब्रह्मचर्यव्रत के धारक होने से वे मध्यस्थता को प्राप्त थे । आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था । उनका रूप मनोहर था । उन्होंने उज्ज्वल एवं सकल पहन रखा था । काला मृगचर्म उत्तरासंग के रूप में वक्षस्थल में धारण किया था । हाथ में दंड और कमण्डलु था । जटा रूपी मुकुट से उनका मस्तक शोभायमान था । उन्होंने यज्ञोपवीत एवं रुद्राक्ष की माला के आभरण, मूंज की कटिमेखला
और वल्कल वस्त्र धारण किए थे । उनके हाथ में कच्छपी नाम की वीणा थी । उन्हें संगीत से प्रीति थी । आकाश में गमन करने की शक्ति होने से वे पृथ्वी पर बहुत कम गमन करते थे । संचरणी, आवरणी, अवतरणी, उत्पतनी, श्लेषणी, संक्रामणी, अभियोगिनी, प्रज्ञप्ति, गमनी और स्तंभिनी आदि बहुत-सी विद्याधरों संबन्धी विद्याओं में प्रवीण होने से उनकी कीर्ति फैली हुई थी । वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे । प्रद्युम्न, प्रदीप, सांब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, सारण, गजसुकुमाल, सुमुख और दुर्मुख आदि यादवों के साढ़े तीन कोटि कुमारों के हृदय के प्रिय थे और उनके द्वारा प्रशंसनीय थे । कलह युद्ध और कोलाहल उन्हें प्रिय था । वे भांड के समान वचन बोलने के अभिलाषी थे । अनेक समर और सम्पराय देखने के रसिया थे । चारों ओर दक्षिणा देकर भी कलह की खोज किया करते थे, कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करते थे. । ऐसे वह नारद तीन लोक में बलवान् श्रेष्ठ दसारवंश के वीर पुरुषों से वार्तालाप करके, उस भगवती प्राकाम्य नामक विद्या का, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता था, स्मरण करके उड़े और आकाश को लांघते हुए हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन और संबाध से शोभित और भरपूर देशों से व्याप्त पृथ्वी का अवलोकन करते-करते रमणीय हस्तिनापुर में आये और बड़े वेग के साथ पाण्डु राजा के महल में उतरे ।
उस समय पांडु राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा । देख कर पाँच पाण्डवों तथा कुन्ती देवी सहित वे आसन से उठ खड़े हुए । सात-आठ पैर कच्छुल्ल नारद के सामने जाकर तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । वंदन किया, नमस्कार किया । महान् पुरुष के योग्य आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रण किया । तत्पश्चात् उन कच्छुल्ल नारद ने जल छिड़ककर और दर्भ बिछाकर उस पर अपना आसन बिछाया और वे उस पर बैठ कर पाण्डु राजा, राज्य यावत् अन्तःपुर के कुशल-समाचार पूछे । उस समय पाण्डु राजा ने, कुन्ती देवी ने और पाँचों पाण्डवों ने कच्छुल्ल नारद का खड़े होकर आदर-सत्कार किया । उनकी पर्युपासना की । किन्तु द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयमी, अविरत तथा पूर्वकृत पापकर्म का निन्दादि द्वारा नाश न करने वाला तथा आगे के पापों का प्रत्याख्यान न करने वाला जान कर उनका आदर नहीं किया, उनके आगमन का अनुमोदन नहीं किया, उनके