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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१६०
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आदि की मार से व्यथित की जाती हुई, धिक्कारी जाती हुई तथा थूकी जाती हुई न कहीं भी ठहरने का ठिकाना पा सकी और न कहीं रहने को स्थान पा सकी । टुकड़े-टुकड़े साँधे हुई वस्त्र पहने, भोजन के लिए सिकोरे का टुकड़ा लिए, पानी पीने के लिए घड़े का टुकड़ा हात में लिए, मस्तक पर अत्यन्त बिखरे बालों को धारण किए, जिसके पीछे मक्खियों के झुंड भिन-भिना रहे थे, ऐसी वह नागश्री घर-घर देहबलि के द्वारा अपनी जीविका चलाती हुई भटकने लगी । तदनन्तर उस नागश्री ब्राह्मणों को उसी भव में सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए । वे इस प्रकार -श्वास कास योनिशूल यावत् कोढ़ । तत्पश्चात् नागश्री ब्राह्मणी सोलह रोगातंकों से पीड़ित होकर अतीव दुःख के वशीभूत होकर, कालमास में काल करके छठी पृथ्वी में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थितिवाले नारक के रूप में उत्पन्न हुई ।
तत्पश्चात् नरक से सीधी निकल कर वह नागश्री मत्स्ययोति में उत्पन्न हुई । वहाँ वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई । अतएव दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल करके, नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थितिवाले नारकों में नारक पर्याय में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् नागश्री सातवीं पृथ्वी से निकल कर सीदी दूसरी बार मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई । वहाँ भी उसका शस्त्री से वध किया गया और दाह की उत्पत्ति होने से मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुई । सातवीं पृथ्वी से निकल कर तीसरी बार भी मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई । वहाँ भी वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई । यावत् काल करके दूसरी बार छठी पृथ्वी में बाईस सागरमोपम की उत्कृष्ट आयु वाले नारकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई । वहाँ से निकलकर वह उरगयोनि में उत्पन्न हुई । इस प्रकार गोशालक समान सब वृत्तान्त समझना, यावत् रत्नप्रभा आदि सातों नरक भूमियों में उत्पन्न हुई । वहाँ से निकल कर यावत् खेचरों की विविध योनियों में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् खर बादर पृथ्वीकाय के रूप में अनेक लाख बार उत्पन्न हुई।
[१६१] तत्पश्चात् वह पृथ्वीकाय से निकल कर इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, चम्पानगरी में सागरदत्त सार्थवाह की भद्रा भार्या की कुंख में बालिका के रूप में उत्पन्न हुई। तब भद्रा सार्थवाही ने नौं मास पूर्ण होने पर बालिका का प्रसव किया । वह बालिका हाथी के तालु के समान अत्यन्त सुकुमार और कोमल थी । उस बालिका के बाहर दिन व्यतीत हो जाने पर माता-पिता ने उसका यह गुण वाला नाम रक्खा-'क्योंकि हमारी यह बालिका हाथी के ताले के समान अत्यन्त कोमल है, अतएव हमारी इस पुत्री का नाम सुकुमालिका हो ।' तब उसका 'सुकुमालिका' नाम नियत कर दिया ।
तदनन्तर सुकुमालिका बालिका को पाँच धायों ने ग्रहण किया अर्थात् पाँच धायें उसका पालन-पोषण करने लगीं । दूध पिलाने वाली धाय स्नान करानेवाली धाय आभूषण पहनाने वाली धाय गोद में लेने वाली धाय और खेलानेवाली धाय । यावत् एक गोद से दूसरी गोद में ले जाई जाती हुई वह बालिका, पर्वत की गुफा में रही हुई चंपकलता जैसे वायुविहीन प्रदेश में व्याघात रहित बढ़ती है, उसी प्रकार सुखपूर्वक बढ़ने लगी । तत्पश्चात् सुकुमालिका बाल्यावस्था से मुक्त हुई, यावत् रूप से, यौवन से और लावण्य से उत्कुष्ट और उत्कृष्ट शरीरवाली हो गई।
[१६२] चम्पानगरी में जिनदत्त नामक एक धनिक सार्थवाह निवास करता था । उस