Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 196
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१६४ १९५ पास गये । जाकर उस भिखारी को अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन का प्रलोभन देकर उसे अपने घर में ले आए । लाकर उसके सिकोरे के टुकड़े को तथा घड़े के ठीकरे को एक तरफ डाल दिया । सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा एक जगह डाल देने पर वह भिखारी जोर-जोर से आवाज करके रोने-चिल्लाने लगा । तत्पश्चात् सागरदत्त ने उस भिखारी पुरुष के ऊँचे स्वर से चिल्लाने का शब्द सुनकर और समझकर कोटुम्बिक पुरुषों को कहा- 'देवानुप्रियो ! यह भिखारी पुरुष क्यों जोर-जोर से चिल्ला रहा है ?' तब कौटुम्बिक पुरुषों ने कहा - 'स्वामिन् ! उस सिकोरे के टुकड़े और घट के ठीकरे को एक ओर डाल देने के कारण । तब सागरदत्त सार्थवाह ने उन कौटुम्बिक पुरुषों से कहा - 'देवानुप्रियो ! तुम उस भिखारी के उस सिकोरे और घड़े के खंड को एक और मत डालो, उसके पास रख दो, जिससे उसे प्रतीति हो ।' यह सुनकर उन्होंने वे टुकड़े उसके पास रख दिए । तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उस भिखारी का अलंकारकर्म कराया । फिड़ शतपाक और सहस्त्रपाक तेल से अभ्यंगन किया । सुवासित गंधद्रव्य से उसके शरीर का उबटन किया । फिर उष्णोदक, गंधोदक और शीतोदक से स्नान कराया । बारीक और सुकोमल गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पौंछा । फिर हंस लक्षण वस्त्र पहनाया । सर्व अलंकारों से विभूषित किया । विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन कराया । भोजन के बाद उसे सागरदत्त के समीप ले गए । तत्पश्चात् सागरदत्त ने सुकुमालिका दारिका को स्नान कराकर यावत् समस्त अलंकारों से अलंकृत करके, उस भिखारी पुरुष से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट है । इसे मैं तुम्हारी भार्या के रूप में देता हूँ । तुम इस कल्याणकारिणी के लिए कल्याणकारी होना ।' उस द्रमक पुरुष ने सागरदत्त की यह बात स्वीकार कर ली । सुकुमालिका दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ और सुकुमालिका दारिका के साथ एक शय्या में सोया । उस समय उस द्रमक पुरुष ने सुकुमालिका के अंगस्पर्श को उसी प्रकार अनुभव किया । यावत् वह शय्या से उठकर शयनागार से बाहर निकला । अपना वही सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा ले करके जिधर से आया था, उधर ही ऐसा चला गया मानो किसी कसाईखाने से मुक्त हुआ हो या मरने वाले पुरुष से छुटकारा पाकर काक भागा हो 'वह द्रमक पुरुष चल दिया ।' यह सोचकर सुकुमालिका भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी । [१६५] तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया । पूर्ववत् कहा-तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में आया । सुकुमालिका को गोद में बिठाकर कहने लगा- 'हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किये हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है । अतएव बेटी ! भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता मत कर । हे पुत्री ! मेरी भोजनशाला में तैयार हुए विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को ( पोट्टिला की तरह) यावत् श्रमणों आदि को देती हुई रह । तब सुकुमालिका दारिका ने यह बात स्वीकार की । स्वीकार करके भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार ती - दिलाती हुई रहने लगी । उस काल और उस समय में गोपालिका नामक बहुश्रुत आर्या, जैसे तेतलिपुत्र नामक अध्ययन में सुव्रता साध्वी के विषय में कहा है, उसी प्रकार पधारी । उनके संघाड़े ने यावत् सुकुमालिका के घर में प्रवेश किया । सुकुमालिका ने यावत् आहार

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