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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
वहरा कर इस प्रकार कहा-'हे आर्याओ ! मैं सागर के लिए अनिष्ट हूँ यावत् अमनोज्ञ हूँ । जिस-जिस को भी मैं दी गई, उसी-उसी को अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ हुई हूँ । आर्याओ ! आप बहुत ज्ञानवाली हो । इस प्रकार पोट्टिला ने जो कहा था, वह सब जानना । आपने कोई मंत्रतंत्र आदि प्राप्त किया है, जिससे मैं सागरदारक को इष्ट कान्त यावत् प्रिय हो जाऊँ ?
आर्याओं ने उसी प्रकार-सुव्रता की आर्याओं के समान-उत्तर दिया । तब वह श्राविका हो गई । उसने दीक्षा अंगीकार करने का विचार किया और उसी प्रकार सागरदत्त सार्थवाह से दीक्षा की आज्ञा ली । यावत् वह गोपालिका आर्या के निकट दीक्षित हुई । तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या हो गई । ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हुई और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि की तपस्या करती हुई विचरने लगी । तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या किसी समय, एक बार गोपालिका आर्या के पास गई । जाकर उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'हे आर्या ! मैं आपकी आज्ञा पाकर चंपा नगरी से बाहर, सुभूमिभाग उद्यान से न बहुत दूर और न बहुत समीप के भाग में बेले-बेले का निरन्तर तप करके, सूर्य के सम्मुख आतापना लेती हुई विचरना चाहती हूँ।
तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा–'हे आर्ये ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, ईर्यासमिति वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं । अतएव हमको गांव यावत् सन्निवेश से बाहर जाकर बेले-बेले की तपस्या करके, यावत विचरना नहीं कल्पता । किन्तु वाड़ से घिरे हुए उपाश्रय के अन्दर ही, संघाटी से शरीर को आच्छादित करके या साध्वियों के परिवार के साथ रहकर तथा पृथ्वी पर दोनों पदतल समान रख कर आतापना लेना कल्पता है ।' तब सुकुमालिका को गोपालिका आर्या की इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति नहीं हुई, रुचि नहीं हुई । वह सुभूमिभाग उद्यान से कुछ समीप में निरन्तर बेले-बेले का तप करती हुई यावत् आतापना लेती हुई विचरने लगी ।
[१६६] चम्पा नगरी में ललिता एक गोष्ठी निवास करती थी । राजा ने उसे इच्छानुसार विचरण करने की छूट दे रक्खी थी । वह टोली माता-पिता आदि स्वजनों की परवाह नहीं करती थी । वेश्या का घर ही उसका घर था । वह नाना प्रकार का अविनय करने में उद्धत थी, वह धनाढ्य लोगों की टोली थी और यावत् किसी से दबती नहीं थी । उस चम्पा नगरी में देवदत्ता नाम की गणिका रहती थी । वह सुकुमाल थी । अंडक अध्ययन अनुसार समझ लेना । एक बार उस ललिता गोष्ठी के पाँच गोष्ठिक पुरुष देवदत्ता गणिका के साथ, सुभूमिभाग उद्यान की लक्ष्मी का अनुभव कर रहे थे । उनमें से एक गोष्ठिक पुरुष ने देवदत्ता गणिका को अपनी गोद में बिठाया, एक ने पीछे से छत्र धारण किया, एक ने उसके मस्तक पर पुष्पों का शेखर रचा, एक उसके पैर रंगने लगा, और एक उस पर चामर ढोने लगा ।।
उस सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को पाँच गोष्ठिक पुरुषों के साथ उच्चकोटि के मनुष्य संबन्धी कामभोग भोगते देखा । उसे इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हआ-'अहा ! यह स्त्री पूर्व में आचरण किये हुए शुभ कर्मों का फल अनुभव कर रही है । सो यदि अच्छी तरह से आचरण किये गये इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कुछ भी कल्याणकारी फल-विशेष हो, तो मैं भी आगामी भव में इसी प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगती हुई विचरूँ। उसने इस प्रकार निदान किया । निदान करके आतापनाभूमि से वापिस लौटी ।