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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१६२
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ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर यावत् पूरे ठाठ के साथ अपने घर से निकला | चम्पानगरीके मध्य भाग में होकर जहाँ सागरदत्त के घर पहुँच कर सागर पुत्र को पालकी से नीचे उतारा । फिर उसे सागरदत्त सार्थवाह के समीप ले गया ।
तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन तैयार करवाया । यावत् उनका सम्मान करके सागरपुत्र को सुकुमालिका पुत्री के साथ पाट पर बिठा कर चांदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया । होम करवाया । होम के बाद सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्री का पाणिग्रहण करवाया । उस समय सागर पुत्र को सुकुमालिका पुत्र के हाथ का स्पर्श ऐसा प्रतीत हुआ मानो कोई तलवार हो अथवा यावत् मुर्मुर आग हो । इनता ही नहीं बल्कि इससे भी अधिक अनिष्ट हस्त-स्पर्श का वह अनुभव करने लगा । किन्तु उस समय वह सागर बिना इच्छा के विवश होकर उस हस्तस्पर्श का अनुभव करता हुआ मुहूर्त्तमात्र बैठा रहा । सागरदत्त सार्थवाह ने सागरपुत्र के माता-पिता को तथा मित्रों, ज्ञातिजनों,
आत्मीय जनों, स्वजनों, सम्बन्धियों तथा परिजनों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन से तथा पुष्प, वस्त्र सम्मानित करके विदा किया । सागरपुत्र सुकुमालिका के साथ जहाँ वासगृह था, वहाँ आया । आकर सुंकुमालिका के साथ शय्या पर सोया ।
- [१६३] उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि । वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श को अनुभव करता रहा । सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर सकता हुआ, विवश होकर, मुहूर्तमात्रवहाँ रहा । फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर उसके पास से उटा और जहाँ अपनी शय्या थी, वहाँ आकर अपनी शय्या पर सो गया । तदनन्तर सुकुमालिका पुत्री एक मुहूर्त में जाग उठी । वह पतिव्रता थी और पति में अनुराग वाली थी, अतएव पति को अपने पार्श्व-पास में न देखती हुई शय्या से उठकर वहाँ गई जहाँ उसके पति की शय्या थी । वहाँ पहुँच कर वह सागर के पास सो गई ।
तत्पश्चात् सागरदारक ने दूसरी बार भी सुकुमालिका के पूर्वोक्त प्रकार के अंगस्पर्श को अनुभव किया । यावत् वह बिना इच्छा के विवश होकर थोड़ी देर तक वहाँ रहा । फिर सागरदारक सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोई जान कर शय्या से उठा । अपने वासगृह उघाड़ कर वह मरण से अथवा मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाये काक पक्षी की तरह शीघ्रता के साथ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया ।
[१६४] सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी । वह पतिव्रता एवं पतिमें अनुरक्ता थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी । उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा करते करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा 'सागर तो चल दिया !' उसके मन का संकल्प मारा गया, अतएव वह हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान-चिन्ता करने लगी । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने कल प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया और उससे कहा'देवानुप्रिय ! तू जा और वर-वधू के लिए मुख-शोधनिका ले जा ।' तत्पश्चात् उस दासचेटी ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर इस अर्थ को अंगीकार किया । उसने मुखशोधनिका ग्रहण करके जहाँ वासगृह था, वहाँ पहुँची । सुकुमालिका दारिका को चिन्ता करती देख कर पूछा-'देवानुप्रिय ! तुम भनमनोरथ होरक चिन्ता क्यों कर रही हो ?' 5|13||