Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 193
________________ १९२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद जिनदत्त की भद्रा नामक पत्नी थी । वह सुकुमारी थी, जिनदत्त को प्रिय थी यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आस्वादन करती हुई रहती थी । उस जिनदत्त सार्थवाह का पुत्र और भद्रा भार्या का उदरजात सागर नामक लड़का था । वह भी सुकुमार एक सुन्दर रूप में सम्पन्न था । एक बार किसी समय जिनदत्त सार्थवाह अपने घर से निकला । निकल कर सागरदत्त के घर के कुछ पास से जा रहा था । उधर सुकुमालिका लड़की नहा-धोकर, दासियों से समूह से घिरो हुई, भवन के ऊपर छत पर सुवर्ण की गेंद से क्रीड़ा करती-करती विचर रही थी । उस समय जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका लड़की को देखा । सुकुमालिका लड़की के रूप पर, यौवन पर और लावण्य पर उसे आश्चर्य हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और पूछा-देवानुप्रियों ! वह किसकी लड़की है ? उसका नाम क्या है ? जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर वे कौटुम्बिक पुरुष हर्षित और सन्तुष्ट हुए । उन्होंने हाथ जोड़ कर इस प्रकार उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! यब सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री, भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका नामक लड़की है । सुकुमार हाथ-पैर आदि अवयवों वाली यावत् उत्कृष्ट शरीखाली है ।' । जिनदत्त सार्थवाह उन कौटुम्बिक पुरुषों से इस अर्थ को सुन कर अपने घर चला गया। फिर नहा-धोकर तथा मित्रजनों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर चम्पा नगरी के मध्यभाग में होकर सागरदत्त के घर था | तब सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आता देखा । वह आसन से उठ खड़ा हुआ । उठ कर उसने जिनदत्त को आसन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया । विश्रान्त एवं विश्वस्त हुए तथा सुखद आसन पर आसीन हुए जिनदत्त से पूछा -'कहिए देवानुप्रिय ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ?' तब जिनदत्त सार्थवाह ने सागरदत्त से कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं आपकी पुत्री, भद्रा सार्थवाही की आत्मजा सुकुमालिका की सागरदत्त की पत्नी के रूप में मँगनी करता हूँ । देवानुप्रिय ! अगर आप यह युक्त समझें, पात्र समझें, श्लाघनीय समझें और यह समझें कि यह संयोग समान है, तो सुकुमालिका सागरदत्त को दीजिए । अगर आप यह संयोग इष्ट समझते हैं तो देवानुप्रिय ! सुकुमालिका के लिए क्या शुल्क दें ?' उत्तर में सागरदत्त ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! सुकुमालिका पुत्री हमारी एकलौती सन्तति है, हमें प्रिय हैं । उसका नाम सुनने से भी हमें हर्ष होता है तो देखने की तो बात ही क्या है ? अतएव देवानुप्रिय ! मैं क्षण भर के लिए भी सुकुमालिका का वियोग नहीं चाहता । देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा गृह-जामाता बन जाय तो मैं सागरदारक को सुकुमालिका दे दूं ।' तत्पश्चात् जिनदत्त सार्थवाह, सागरदत्त सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर अपने घर गया । घर जाकर सागर नामक अपने पुत्र को बुलाया और उससे कहा-'हे पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझसे ऐसा कहा है-'हे देवानुप्रिय ! सुकुमालिका लड़की मेरी प्रिय हैं, इत्यादि सो यदि सागर मेरा गृहजामाता बन जाय तो मैं अपनी लड़की हूँ ।' जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर सागर पुत्र मौन रहा । तत्पश्चात् एक बार किसी समय शुभ तिथि, करण नक्षत्र और मुहूर्त में जिनदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया । तैयार करवा कर मित्रों, निजजनों, स्वजनों, संबन्धियों तथा परिजनों को आमंत्रित किया, यावत् जिमाने के पश्चात् सम्मानित किया । फिर सागर पुत्र को नहरा-धुला कर यावत् सब अलंकारों से विभूषित किया । पुरुषसहस्त्रवाहिनी पालकी पर आरूढ़ किया, आरूढ़ करके मित्रों एवं

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