Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 190
________________ ज्ञाताधर्मकथा - १/-/१६/१५९ पर डाल दूंगा तो यह बहुत-से प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के वध का कारण होगा । अतएव इस शाक को स्वयं ही खा जाना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा । यह शाक इसी शरीर से ही समाप्त हो जाय । अनगार ने ऐसा विचार करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की । मस्तक सहित ऊपर शरीर का प्रमार्जन किया । प्रमार्जन करके वह शाक स्वयं ही, आस्वादन किए बिना अपने शरीर के कोठे में डाल लिया । जैसे सर्प सीधा ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार वह आहार सीधा उनके उदर में चला गया । १८९ शरद् संबन्धी तुंबे का यावत् तेल वाला शाक खाने पर धर्मरुचि अनगार के शरीर में, एक मुहूर्त में ही उसकी असर हो गया । उनके शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई । वह वेदना उत्कट थी, यावत् दुस्सह थी । शाक पेट में डाल लेने के पश्चात् धर्मरुचि अनगार स्थाम से रहित, बलहीन, वीर्य से रहित तथा पुरुषकार और पराक्रम से हीन हो गये । 'अब यह शरीर धारण नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर उन्होंने आचार के भाण्ड - पात्र एक जगह रख दिये। उन्हें रख कर स्थंजिल का प्रतिलेखन किया । प्रतिलेखन करके दर्भ का संथारा बिछाया और वे उस पर आसीन हो गये पूर्व दिशा की ओर मुख करके पर्यक आसान से बैठ कर, दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके इस प्रकार कहा अरिहन्तों यावत् सिद्धिगति को प्राप्त भगवन्तों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक धर्मघोष स्थविर को नमस्कार हो । पहले भी मैंने धर्मघोष स्थविर के पास सम्पूर्ण प्राणातिपात का जीवन पर्यन्त के लिये प्रत्याख्यान किया था, यावत् परिग्रह का भी, इस समय भी मैं उन्हीं भगवन्तों के समीप सम्पूर्ण प्राणातिपात यावत् सम्पूर्ण परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ जीवन - पर्यन्त के लिए । स्कंदक मुनि समान यहाँ जानना । यावत् अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ अपने इस शरीर का भी परित्याग करता हूँ । इस प्रकार कह कर आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधि के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए । धर्मघोष स्थविर ने धर्मरूचि अनगार को चिरकाल से गया जानकर निर्ग्रन्थ श्रमणों को बुलाया । उनसे कहा- 'देवानुप्रियों ! धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में यावत् तेल वाला कटुक तुंबे का शाक मिला था । उसे परठने के लिए वह बाहर गये थे । बहुत समय हो चुका है । अतएव देवानुप्रिय ! तुम जाओ और धर्मरुचि अनगार की सब ओर मार्गणा - गवेषणा करो ।” तत्पश्चात् श्रमण निग्रंथों ने अपने गुरु का आदेश अंगीकार किया । वे धर्मघोष स्थविर के पास से बाहर निकले । सब ओर धर्मरुचि अनगार की मार्गणा करते हुए जहाँ स्थंडिलभूमि थी वहा आये । देखा धर्मरुचि अनगार का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव पड़ा है । उनके मुख से सहसा निकल पड़ा- 'हा हा ! अहो ! यह अकार्य हुआ !' इस प्रकार कह कर उन्होंने धर्मरुचि अनगार का परिनिर्वाण होने संबन्धी कायोत्सर्ग किया और आचारभांडक ग्रहण किये और धर्मघोष स्थविर के निकट पहुँचे । गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । प्रतिक्रमण करके बोले - आपका आदेश पा करके हम आपके पास से निकले थे । सुभूमिभाग उद्यान के चारों तरफ धर्मरुचि अनगार की यावत् सभी ओर मार्गणा करते हुए स्थंडिल भूमि में गये । यावत् जल्दी ही यहाँ लौट आए हैं. भगवन् ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं । यह उनके आचार- भांड हैं । स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रुत में उपयोग लगाया । उपयोग लगाकर श्रमण निर्ग्रन्थों को

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