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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अपने काम मे संलग्न हो गए । तत्पश्चात् स्नान की हुई और विभूषित हुई उन ब्राह्मणियों ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार जीमा । जीमकर वे अपने-अपने घर चली गई । अपने-अपने काम में लग गई।
[१५९] उस काल और उस समय में धर्मधोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार से साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे । साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे । उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया । परिषद् वापिस चली गई । धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार थे । वह उदार-प्रधान अथवा उराल-उग्र तपश्चर्या करने के कारण पार्श्वस्थों के लिए अति भयानक लगते थे । वे धर्मरुचि अनगार मास-मास का तप करते हुए विचरते थे । किसी दिन धर्मरुचि अनगार के मासक्षपण के पारणा का दिन आया । उन्होंने पहली पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी में ध्यान किया इत्यादि सब गौतमस्वामी समान कहना, तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन करके उन्हें ग्रहण किया । धर्मघोष स्थविर से भिक्षागोचरी लाने की आज्ञा प्राप्त की यावत् वे चम्पा नगरी में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुए ।
तब नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते देखा । वह उस बहुत-से मसालों वाले और तेल से युक्त तुंबे के शाक को निकाल देने का योग्य अवसर जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ
और खड़ी हुआ । भोजनगृह में गई । उसने वह तिक्त और कडुवा बहुत तेल वाला सब-का सब शाक धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया । धर्मरुचि अनगार ‘आहार पर्याप्त है' ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले । चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर सुभूमिभाग उद्यान में आए । उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया । हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया । उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरद्क्रतु संबन्धी, तेलसे व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस तेलसे व्याप्त खास में से एक बूंद हाथ में ली, उसे चखा । तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम यब तेल वाला तुंबे का खास खाओगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जाओगे, अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम इस को मत खाना । ऐसा न हो कि असमय में ही तुम्हारे प्राण चले जाएँ । अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह तुंबे का शाक एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो । दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका आहार करो ।'
तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से निकले । सुभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस तुंबे के शाक की बूंद ली और उस भूभाग में डाली । तत्पश्चात् उस शरद् संबन्धी तिक्त, कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों कीडिया वहाँ आ गई । उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुई । तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ-यदि इस शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीड़ियाँ मर गई, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि