________________
१७८
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्रसव किया है । अतः तुम इस बालक को ग्रहण करो-संभालों । यावत् यह बालक तुम्हारे लिए और मेरे लिए भिक्षा का भाजन सिद्ध होगा ।' ऐसा कहकर उसने वह बालक तेतलिपुत्र के हाथों में सौंप दिया । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पद्मावती के हाथ से उस बालक को ग्रहण किया और अपने उत्तरीय वस्त्र से ढंक लिया । ढंक कर गुप्त रूप से अन्तःपुर के पिछले द्वार से बाहर निकल गया । निकल कर जहाँ अपना घर था और जहाँ पोट्टिला भार्या थी, वहां आया । आकर पोट्टिला से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! कनकरथ राजा राज्य आदि में यावत् अतीव आसक्त होकर अपने पुत्रों को यावत् अपंग कर देता हैं और यह बालक कनकरथ का पुत्र और पद्मावती का आत्मज है, अतएव देवानुप्रिय ! इस बालक का, कनकरथ से गुप्त रख कर अनक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करना । इस प्रकार कह कर उस बालक को पोट्टिला के पास रख दिया और पोट्टिला के पास से मरी हुई लड़की उठा ली । उठा कर उसे उत्तरीय वस्त्र से ढंक कर अन्तःपुर के पिछले छोटे द्वार से प्रविष्ट हुआ और पद्मावती देवी के पास पहुँचा । मरी लड़की पद्मावती देवी के पास रख दी और वापिस चला गया ।
तत्पश्चात् पद्मावती की अंगपरिचारिकाओं ने पद्मावती देवी को और विनिघात को प्राप्त जन्मी हई बालिका को देखा । कनकरथ राजा के पास पहँच क दोनों हाथ जोडकर इस प्रकार कहने लगीं-'स्वामिन् ! पद्मावती देवी ने मृत बालिका का प्रसव किया है ।' तत्पश्चात् कनकरथ राजा ने मरी हुई लड़की का नीहरण किया । बहुत-से मृतक-सम्बन्धी लौकिक कार्य किये । कुछ समय के पश्चात् राजा शोक-रहित हो गया । तत्पश्चात् दूसरे दिन तेतलिपुत्र ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुला कर कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चारक शोधन करो। यावत् दस दिनों की स्थितिपतिका करो-पुत्रजन्म का उत्सव करो । यह सब करके मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपों । हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में उत्पन्न हुआ है, अतएव इस बालक का नाम कनकध्वज हो, धीरे-धीरे वह बालक बड़ा हुआ, कलाओं में कुशल हुआ, यौवन को प्राप्त होकर भोग भोगने में समर्थ हो गया ।
[१५०] किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई । तेतलिपुत्र उसका नामगोत्र भी सुनना पसन्द नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या । तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार आया-'तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु आजकल अप्रिय हो गई हूँ । अतएव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सुनना चाहते, तो यावत् परिभोग तो चाहेंगे ही क्या ?' इस प्रकार, जिसके मन के संकल्प नष्ट हो गये हैं ऐसी वह पोट्टिला चिन्ता में डूब गई । तेतलिपुत्र ने भग्नमनोरथा पोट्टिला को चिन्ता में डूबी देखकर कहा-'देवानुप्रिये ! भग्नमनोरथ मत होओ । तुम मेरी भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाओ और बहुत-से श्रमणों ब्राह्मणों अतिथियों
और भिखारियों को दान देती-दिलाती हुई रहा करो । तेतलिपुत्र के ऐसा कहने पर पोट्टिला हर्षित और संतुष्ट हुई । तेतलिपुत्र के इस अर्थ को अंगीकार करके प्रतिदिन भोजनशाला में वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवा कर श्रमणों ब्राह्मणों अतिथियों और भिखारियों को दान देती और दिलाती रहती थी-अपनी काल यापन करती थी ।
[१५१] उस काल और उस समय में ईर्या-समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक आर्या अनुक्रम से विहार करती-करती तेतलिपुर नगर