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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
तेतलिपुत्र के पास गई । जाकर दोनों हाथ जोड़कर बोली -देवानुप्रिय ! मैंने सुव्रता आर्या से धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अतीव इष्ट है और रुचिकर लगा है, अतः आपकी आज्ञा पाकर मैं प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ । तब तेतलिपुत्र ने पोट्टिला से कहा-'देवानुप्रिये ! तुम मुंडित और प्रव्रजित होकर मृत्यु के समय काल किसी भी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होओगी, सो यदि तुम उस देवलोक से आकर मुझे केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध प्रदान करो तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ । अगर मुझे प्रतिबोध न दो तो मैं आज्ञा नहीं देता । तब पोट्टिला ने तेतलिपुत्र के अर्थ-कथन स्वीकार कर लिया । ।
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम आहार बनवाया । मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया । उनका यथोचित सत्कार-सम्मान किया । पोट्टिला को स्नान कराया और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविका पर आरूढ़ करा कर मित्रों तथा ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर, समस्त ऋद्धि-लवाजमें के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ तेतलिपुत्र के मध्य में होकर सुव्रता साध्वी के उपाश्रय में आया । वहाँ आकर सुव्रता आर्या को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! यह मेरी पोट्टिला भार्या मुझे इष्ट है । यब संसार के भय से उद्वेग को प्राप्त हुई है, यावत् दीक्षा अंगीकार करना चाहती है । सो देवानुप्रिये ! मैं आपको शिष्यारूप भिक्षा देता हूँ । इसे आप अंगीकार कीजिए ।' आर्या ने कहा-'जैसे सुख उपजे वैसा करो; प्रतिबन्ध मत करो-विलम्ब न करो ।' तत्पश्चात सुव्रता आर्या के इस प्रकार कहने पर पोट्टिला हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने ईशान दिशा में जाकर अपने आप आभरण, माला और अलंकार उतार डाले । स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । जहाँ सुव्रता आर्या थी, वहाँ आई । उन्हें वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'हे भगवती ! यह संसार चारों ओर से जल रहा हैं, इत्यादि यावत् पोट्टिला ने दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक चारित्र का पालन किया । एक मास की संलेखना करके, अपने शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन करके, पापकर्म की आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधिपूर्वक मृत्य के अवसर पर काल करके वह किसी देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुई ।
[१५३] तत्पश्चात् किसी समय कनकरथ राजा मर गया । तब राजा, ईश्वर, यावत् अन्तिम संस्कार करके वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे-देवानुप्रियो ! कनकरथ राजा ने राज्य आदि में आसक्त होने के कारण अपने पुत्रों को विकलांग कर दिया है । देवानुप्रियो ! हम लोग तो राजा के अधीन हैं, राजा से अधिष्ठित होकर रहनेवाले हैं और राजा के अधीन रहकर कार्य करनेवालेहैं, तेतलिपुत्र अमात्य राजा कनकरथ का सब स्थानों में और सब भूमिकाओं में विश्वासपात्र रहा है, परामर्श-विचार देनेवाला-विचारक है, और सब काम चलानेवाला हैं । अतएव हमें तेतलिपुत्र अमात्य से कुमार की याचना करनी चाहिए ।' तेतलिपुत्र अमात्य के पास आये । तेतलिपुत्र से कहने लगे- 'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है-कनकरथ राजा राज्य में तथा राष्ट्र में आसक्त था । अतएव उसने अपने सभी पुत्रों को विकलांग कर दिया हैं और हम लोग तो देवानुप्रिय ! राजा के अधीन रहनेवाले यावत राजा के अधीन रहकर कार्य करनेवाले हैं। हे देवानुप्रिय ! तुम कनकरथ राजा के सभी स्थानों में विश्वासपात्र रहे हो, यावत् राज्यधुरा के चिन्तक हो । यदि कोई कुमार राजलक्षणों से युक्त और अभिषेक के योग्य हो तो हमें दो,