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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/५/६९
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भोजन-पान मिलने के कारण वेदना उत्पन्न हो गई । वह वेदना उत्कट यावत् विपुल, कठोर, प्रगाढ़, प्रचंड एवं दुस्सह थी । उनका शरीर खुजली और दाह उत्पन्न करनेवाले पित्तज्वर से व्याप्त हो गया । तब वह शैलक राजर्षि उस रोगांतक से शुष्क हो गये । तत्पश्चात् शैलक राजर्षि किसी समय अनुक्रम से विचरते हुए यावत् जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहां आकर विचरने लगे । उन्हें वन्दन करने के लिए परिषद निकली । मंडुक राजा भी निकला । शैलक अनगार को सब ने वन्दन किया, नमस्कार किया । उपासन की । उस समय मंडुक राजा ने शैलक अनगार का शरीर शुष्क, निस्तेज यावत् सब प्रकार की पीडा से आक्रान्त और रोगयुक्त देखा । देखकर इस प्रकार कहा - 'भगवन् मैं आपकी साधु के योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध और भेषज के द्वारा तथा भोजन-पान द्वारा चिकित्सा कराना चाहता हूँ। भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिए और प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक ग्रहण करके विचरिए ।'
तत्पश्चात् शैलक अनगार ने मंडुक राजा के इस अर्थ को 'ठीक है' ऐसा कहकर स्वीकार किया और राजा वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया । तत्पश्चात् वह शैलक राजर्षि कल प्रभात हैने पर, सूर्योदय हो जाने के पश्चात् सहस्त्ररश्मि सूर्य के देदीप्यमान होने पर भंडमात्र और उपकरण लेकर पंथक प्रभृति पाँच सौ मुनियों के साथ शैलकपुर में प्रविष्ट हुए । प्रवेश करके जहाँ मंडुक राजा की यानशाला थी, उधर आये । आकर प्रासुक पीठ फलक शय्या संस्तारक ग्रहण करके विचरने लगे । तत्पश्चात् मंडुक राजा ने चिकित्सकों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम शैलक राजर्षि की प्रासुक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो ।' तब चिकित्सक मंडुक राजा के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए । उन्होंने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा की और मद्यपान करने की सलाह दी । तत्पश्चात् साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान से तथा मद्यपान करने से शैलक राजर्षि को रोग-आतंक शान्त हो गया । वह हृष्ट-तुष्ट यावत् बलवान् शरीरवाले हो गये । उनके रोगान्तक पूरी तरह दूर हो गए । तत्पश्चात् शैलक राजर्षि उस रोगातंक के उपशान्त हो जाने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्छित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गये। वह अवसत्र-आलसी अवसन्नविहारी । इसी प्रकार पार्श्वस्थ तथा पार्श्वस्थविहारी कुशील
और प्रमत्तविहारी, संसक्त तथा संसक्तविहारी हो गए । शेष काल में भी शय्या-संस्तारक के लिए पीठ-फलक रखनेवाले प्रमादी हो गए । वह प्रासुक तथा एषणीय पीठ फलक आदि को वापस देकर और मंडुक राजा से अनुमति लेकर बाहर जनपद-विहार करने में असमर्थ हो गए।
[७०] तत्पश्चात् पंथक के सिवाय वे पाँच सौ अनगार किसी समय इकट्ठे हुए-मिले, एक साथ बैठे । तब मध्य रात्रि को समय धर्मजागरणा करते हुए उन्हें ऐसा विचार, चिन्तन, मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि-शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए, किन्तु अब विपुल, अशन, पान, खादिम और स्वादिम में तथा मद्यपान में मूर्छित हो गये हैं। वह जनपद-विहार करने में समर्थ नहीं हैं । हे देवानुप्रियो ! श्रमणों को प्रमादी होकर रहना नहीं कल्पता है । हमारे लिए यह श्रेयस्कर है कि कल शैलकराजर्षि से आज्ञा लेकर और पडिहारी पीठ फलग शय्या एवं संस्तारक वापिस सौंपकर, पंथक अनगार को शैलक अनगार का