Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 171
________________ १७० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद राजा जितशत्रु ने कहा-देवानुप्रिय ! यदि तुम्हें प्रव्रज्या अंगीकार करनी है तो जाओ और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो और शिविका पर आरूढ़ होकर मेरे समीप प्रकट होओ-1 तब सुबुद्धि अमात्य शिविका पर आरूढ़ होकर यावत् राजा के समीप आ गया। तत्पश्चात् जितशत्रु ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा-'जाओ देवानुप्रियो ! अदीनशत्रु कुमार के राज्याभिषेक की सामग्री उपस्थित-तैयार करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने सामग्री तैयार की, यावत्कुमार का अभिषेक किया, यावत् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के साथ प्रव्रज्या अंगीकार कर ली । दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् जितशत्रु मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पाल कर अन्त में एक मास की संलेखना करके सिद्धि प्राप्त की । दीक्षा अंगीकार करने के अन्तर सुबुद्धि मुनि ने भी ग्याहर अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पाली और अंत में एक मास की संलेखना करके सिद्धि पाई । हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा हैं । मैंने जैसा सुना वैसा कहा । अध्ययन-१२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-१३-'मण्डुक') [१४५] भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने बारहवें ज्ञात-अध्ययन का अर्थ कहा है तो तेरहवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था । राजगृह के बाहर उत्तरपूर्वदिशा में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर चौदह हजार साधुओं के साथ यावत् अनुक्रम से विचरते हुए, एक गाँव से दूसरे गाँव सुखे-सुखे विहार करते हुए राजगृह नगर और गुणशील उद्यानमें पधारे । यथायोग्य अवग्रह की याचना करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । भगवान् को वन्दना करने के लिए परिषद् निकली और धर्मोपदेश सुन कर वापिस लौट गई। उस काल और उस समय सौधर्मकल्प में, दर्दुरावतंसक नामक विमान में, सुधर्मा नामक सभा में, दर्दुर नामक सिंहासन पर, दुर्दुर नामकदेव चार हजार सामानिक देवों, चार अग्रमहिषियों और तीन प्रकार की परिषदो के साथ यावत् सूर्याभ देव के समान दिव्य भोग योग्य भोगों को भोगता हुआ विचर रहा था । उस समय उसने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से देखते-देखते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में भगवान् महावीर को देखा । तब वह परिवार के साथ भगवान के पास आया और सूर्याभ देव के समान नाट्यविधि दिखलाकर वापिस लौट गया । भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! दुर्दुर देव महान् ऋद्धिमान् महाद्युतिमान्, महाबलवान्, महायशस्वी, महासुखवान् तथा महान् प्रभाववान् है, तो हे भगवन् ! दर्दुर देव की वह दिव्य देवऋद्धि कहा चली गई ? कहाँ समा गई ?' भगवान् ने उत्तर दिया-'गौतम ! वह देव-ऋद्धि शरीर में गई, शरीर में समा गई । इस विषय में कूटागार का दृष्टान्त समझना । । गौतमस्वानी ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! दुर्दुरदेव ने वह दिव्या देव-ऋद्धि कि प्रकार लब्ध की, किस प्रकार प्राप्त की ? किस प्रकार वह उसके समक्ष आई ? 'गौतम ! इसी

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