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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१३/१४५
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जिसकीपूर्व दिशा में वनखण्ड है-यावत् राजगृह नगर से भी बाहर निकल कर बहुत-से लोग आसनों पर बैठते हैं, शयनीयों पर लेटते हैं, नाटक आदि देखते हैं और कथा-वार्ता कहते हैं और सुख-पूर्वक विहार करते हैं । अतएव नन्द मणिकार का मनुष्यभव सुलब्ध-सराहनीय है और उसका जीवने तथा जन्म भी सुलब्ध हैं ।' उस समय राजगृह नगर में भी श्रृंगाटक आदि मार्गों मे बहुतेरे लोग परस्पर कहते थे-देवानुप्रिय ! नंद मणिकार धन्य हैं, यावत् जहाँ आकर लोग सुखपूर्वक विचरते हैं । तब नंद मणिकार बहुत-से लोगों से यह अर्थ सुन्कर हृष्ट-तुष्ट हुआ। मेघ की धारा से आहत कदम्बवृक्ष के समान उसके रोमकूप विकसित हो गये -उसकी कली-कली खिल उठी । वह साताजनित परम सुख का अनुभव करने लगा।
[१४६] कुछ समय के पश्चात एक बार नंद मणिकार सेठ के शरीर में सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए । वे इस प्रकार थे-श्वास कास ज्वर दाह, कुक्षि-शूल, भगंदर अर्श अजीर्ण नेत्रशूल मस्तकशूल भोजनविषयक अरुचि नेत्रवेदना कर्णवेदना कंडू-खाज दकोदर और कोढ़ ।
[१४७] नंद मणिकार इन सोहल रोगातंकों से पीड़ित हुआ । तब उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियों ! तुम जाओ और राजगृह नगर में श्रृंगाटक यावत् छोटे-छोटे मार्गों में ऊँची आवाज से घोषणा करते हुए कहो-'हे देवानुप्रियों ! नंद मणिकार श्रेष्ठी के शरीर में सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए हैं, यथा-श्वास से कोढ़ तक | तो हे देवानुप्रियो ! जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, कुशल या कुशल का पुत्र, नंद मणिकार के उन सोलह रोगातंकों में से एक भी रोगातंक को उपशान्त करना चाहे-मिटा देगा, देवानुप्रियों ! नंद मणिकार उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेगा । इस प्रकार दूसरी बार और तीसरी बार घोषणा करो । घोषणा करके मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार राजगृह की गली-गली में घोषणा करके आज्ञा वापिस सौंपी।
राजगृहनगर में इस प्रकार की घोषणा सुनकर और हृदय में धारण करके वैद्य, वैद्यपुत्र, यावत् कुशलपुत्र हाथ में शस्त्रकोश लेकर, शिलिका, गोलियाँ और औषध तथा भेषज हाथ में लेकर अपने-अपने घरों से निकले । राजगृह के बीचोंबीच होकर नंद मणिकार के घर आए । उन्होंने नन्द मणिकार के शरीर को देखा ओर नन्द मणिकार से रोग उत्पन्न होने का कारण पूछा। फिर उद्धलन, उद्धर्तन, स्नेह पान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अपस्नान, अनुवासना, वस्तिकर्म से, निरूह द्वारा, शिरावेध से, तक्षण से प्रक्षण से, शिरावेष्ट से, तर्पण से, पुटपाक से, पत्तों से, छालों से, वेलों से, मूलों से, कंदों से, पुष्पों से, फलों से, बीजों से, शिलिका से, गोलियों से, औषधों से, भेषजों से, उन सोलह रोगातंकों में से एक-एक रोगातंक को उन्होंने शान्त करना चाहा, परन्तु वे एक भी रोगातंक को शान्त करने में समर्थ न हो सके । बहुत-से वैद्य, वैद्यपुत्र, जानकार, जानकारों के पुत्र, कुशल और कुशलपुत्र जब एक भी रोग को उपशान्त करने में समर्थ न हुए तो थक गये, खिन्न हुए, यावत् अपने-अपने घर लौट गये। नन्द मणिकार उस सोलह रोगातंकों से अभिभूत हुआ और नन्दा पुष्करिणी में अतीव मूर्छित हुआ । इस कारण उसने तिर्यचयोनि सम्बन्धी आयु का बन्ध किया, प्रदेशों का बन्ध किया। आर्तध्यान के वशीभूत होकर मृत्यु के समय में काल करके उसी नन्दा पुष्करिणी में एक मेंढ़की की कुंख में मेंढ़क के रूप में उत्पन्न हआ ।
तत्पश्चात् नन्द मण्डूक गर्भ से बाहर निकला और अनुक्रम से बाल्यावस्था से मुक्त