Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 172
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१३/१४५ १७१ जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर था । गुणशील चैत्य था । श्रेणिक राजा था । उस नगर में नन्द नामक मणिकार सेठ रहता था । वह समृद्ध था, तेजस्वी था और किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था ।' हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील उद्यान में आया। परिषद् वन्दना करने के लिए निकली और श्रेणिक राजा भी निकला । तब नन्द मणियार सेठ इस कथा का अर्थ जान कर स्नान करके विभूषित होकर पैदल चलता हुआ आया, यावत् मेरी उपासना करने लगा । फिर वह नन्द दर्म सुनकर श्रमणोपासक हो गया । तत्पश्चात् मैं राजगृह से बाहल निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगा। तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी साधुओं का दर्शन न होने से, उनकी उपासना न करने से, उनका उपदेश न मिलने से और वीतराग के वचन न सुनने से, क्रमशः सम्यक्त्व के पर्यायों की धीरे-धीरे हीनता होती चली जाने से और मिथ्यात्व के पर्यायों की क्रमशः वृद्धि होते रहने से, एक बार किसी समय मिथ्यात्वी हो गया । नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने किसी समय ग्रीष्मऋतु के अवसर पर, ज्येष्ठ मास में अष्टम भक्त अंगीकार किया । वह पौषधशाला में यावत् विचरने लगा । तत्पश्चात् नन्द श्रेष्ठी का अष्टमभक्त जब परिणत हो रहा था-तब प्यास और भूख से पीड़ित हुए उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-'वे यावत् ईश्वर सार्थवाह आदि धन्य हैं, जिनकी राजगृह नगर से बाहर बहुत-सी बावड़ियाँ हैं, पुष्करिणियाँ हैं,यावत् सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, हैं, जिनमें बहुतेरे लोग स्नान करते हैं, पानी पीते हैं और जिनसे पानी भर ले जाते हैं । तो मैं भी कल प्रभात होने पर श्रेणिक राजा की आज्ञा लेकर राजगृह नगर से बाहर, उत्तरपूर्व दिशा में, वैभारपर्वत से कुछ समीप में, वास्तुशास्त्र के पाठकों से पसंद किये हए भूमिभाग में नंदा पुष्करिणी खुदवाऊँ, यह मेरे लिए उचित होगा ।' नन्द श्रेष्ठी ने इस प्रकार विचार करके, दूसरे दिन प्रभात होने पर पोषध पारा । स्नान किया, बलिकर्म किया, फिर मित्र ज्ञाति आदि से यावत् परिवृत होकर बहुमूल्य उपहार लेकर राजा के समक्ष रखा और इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! आपकी अनुमति पाकर राजगृह नगर के बाहर यावत् पुष्करिणी खुदवाना चाहता हूँ।' राजा ने उत्तर दिया-'जैसे सुख उपजे, वैसा करो ।' तत्पश्चात् नन्द मणिकार सेठ श्रेणिक राजा से आज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुआ । वह राजगृह नगर के बीचों बीच होकर निकला । वास्तुशास्त्र के पाठकों द्वारा पसंद किए हुए भूमिभाग में नंदा नामक पुष्करिणी खुदवाने में प्रवृत्त हो गया-उसने पुष्करिणी का खनन कार्य आरम्भ करवा दिया । तत्पश्चात् नंदा पुष्करिणी अनुक्रम से खुदती-खुदती चतुष्कोण और समान किनारों वाली पूरी पुष्करिणी हो गई । अनुक्रम से उसके चारों ओर घूमा हुआ परकोटा बन गया, उसका जल शीतल हुआ । जल पत्तों, बिसतंतुओं और मृणालों से आच्छादित हो गया । वह वापी बहुत-से खिले हुए उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिनी, सुभग जातिय कमल, सौगंधिक कमल, पुण्डरीक महापुण्डरीक, शतपत्र कमल, सहस्रपत्र कमल की केसर से युक्त हुई । परिहत्थ नामक जल-जन्तुओं, भ्रमण करते हुए मदोन्मत्त भ्रमरों और अनेक पक्षियों के युगलों द्वारा किये हुए शब्दों से उन्नत और मधुर स्वर से वह पुष्करिणी गूंजने लगी । वह सबके मन को प्रसन्न करनेवाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो गई । तत्पश्चात नंग मणिकार श्रेष्ठी ने नंदा पुष्करिणी की चारों दिशानों में चार वनखण्ड रुपवाये-लगवाये । उन वनखण्डों की क्रमशः अच्छी रखवाली की गई, संगोपन-सार-सँभाल की गई, अच्छी तरह उन्हें बढ़ाया

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