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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
युक्त, मनोज्ञ गंध से युक्त, रस से युक्त और स्पर्श से युक्त, आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों तथा गात्र को मति आह्लाद उत्पन्न करनेवाला हो गया । तत्पश्चात् सुबुद्धि अमात्य उस उदकरत्न के पास पहुँचकर हथेली में लेकर उसका आस्वादन किया । उसे मनोज्ञ वर्ण से युक्त, गंध से युक्त, रस से युक्त, स्पर्श से युक्त, आस्वादन करने योग्य यावत् सब इन्द्रियों को और गात्र को अतिशय आह्लादजनक जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ । फिर उसने जल को सँवारने वाले द्रव्यों से सँवारा-जितशत्रु राजा के जलगृह के कर्मचारी को बुलवाकर कहा-'देवानुप्रिय ! तुम यह उदकरत्न ले जाओ । इसे ले जाकर राजा जितशत्रु के भोजन की वेला में उन्हें पीने के लिए देना ।' तत्पश्चात् जलगृह के उस कर्मचारी ने सुबुद्धि के इस अर्थ को अंगीकार किया।
अंगीकार करके वह उदकरत्न ग्रहण किया और ग्रहण करके जितशत्रु राजा के भोजन की वेला में उपस्थित किया ।
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा उस विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आस्वादन करता हुआ विचर रहा था । जीम चुकने के अनन्तर अत्यन्त शुचि-स्वच्छ होकर जलरत्न का पान करने से राजा को विस्मय हुआ । उसने बहुत-से राजा, ईश्वर आदि से यावत् कहा-'अहो देवानुप्रियो ! यह उदकरत्न स्वच्छ है यावत् समस्त इन्द्रियों को और गात्र को आह्लाद उत्पन्न करने वाला है ।' तब वे बहुत-से राजा, ईश्वर आदि यावत् इस प्रकार कहने लगे-‘स्वामिन् ! जैसा आप कहते हैं, बात ऐसी रही है । यह जलरत्न यावत् आह्लादजनक है ।
तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने जलगृह के कर्मचारी का बुलवाया और बुलवाकर पूछा'देवानुप्रिय ! तुमने यह जलरत्न कहाँ से प्राप्त किया ?' तब जलगृह के कर्मचारी ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् यह जलरत्न मैंने सुबुद्धि अमात्य के पास से प्राप्त किया है ।' तत्पश्चात् राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य को बुलाया और उससे कहा-'अहो सुबुद्धि ! किस कारण से तुम्हें मैं अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम हूँ, जिससे तुम मेरे लिए प्रतिदिन भोजन के समय यह उदकरत्न नहीं भेजते ? देवानुप्रिय ! तुमने यह उदकरत्न कहाँ से पाया हैं ?' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! यह वही खाई का पानी है ।' तब जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा- किस प्रकार यह वही खाई का पानी है ?'
तब सुबुद्धि ने जितशत्रु से कहा-'स्वामिन् ! उस समय अर्थात् खाई के पानी का वर्णन करते समय मैंने आपको पुद्गलों का परिणमन कहा था, परन्तु आपने उस पर श्रद्धा नहीं की थी । तब मेरे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, विचार या मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-अहो ! जितशत्रु राजा सत् यावत् भावों पर श्रद्धा नहीं करते, प्रतीति नहीं करते, रुचि नहीं रखते, अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर हैं कि जितशत्रु राजा सो सत् यावत् सद्भूत जिनभाषित भावों को समझाकर पुद्गलों के परिणमन रूप अर्थ को अंगीकार कराऊँ । विचार करके पहले कहे अनुसार पानी को सँवार कर तैयार किया । यावत् यह वही खाई का पानी है ।' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य के पूर्वोक्त अर्थ पर श्रद्धा न की, प्रतीति न की और रुचि न की । उसने अपनी अभ्यन्तर परिषद् के पुरुषों को बुलाया । उन्हें बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और खाई के जल के रास्ते वाली कुंभार की दुकान से नये घड़े तथा वस्त्र लाओ और यावत् जल को सँवारने-सुन्दर बनानेवाले द्रव्यों से उस जल को सँवारो।' उन पुरुषों ने राजा के कथनानुसार पूर्वोक्त विधि से जल को सँवारा और सँवार कर वे जितशत्रु