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ज्ञाताधर्मकथा-१/-1८/८९
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महोत्सव देखा था । सुबाहु कुमारी का यह मजन-उत्सव उस मजनमहोत्सव के लाखवें अंश को भी नहीं पा सकता । वर्षधर से यह बात सुनकर और हृदय में धारण करके, मज्जन-महोत्सव का वृत्तांत सुनने से जनित हर्ष वाले रुक्मि राजा ने दूत को बुलाया । शेष पूर्ववत् । दूत को बुलाकर कहा-दूत मिथिला नगरी जाने को खाना हुआ।
[९०] उस काल और उस समय में काशी नामक जनपद था । उस जनपद में वाणारसी नामक नगर थी । उसमें काशीराज शंख नामक राजा था । एक बार किसी समय विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली के उस दिव्य कुण्डल-युगल का जोड़ खुल गया । तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाया और कहा-'देवानुप्रियो ! इस दिव्य कुण्डलयुगल के जोड़ को सांध दो ।' तत्पश्चात् सुवर्णकारों की श्रेणी ने 'तथा-ठीक है', इस प्रकार कह कर इस अर्थ को स्वीकार किया । उस दिव्य कुण्डलयुगल को ग्रहण किया । जहाँ सुवर्णकारों के स्थान थे, वहाँ आये । उन स्थानों पर कुण्डलयुगल रखा । उस कुण्डलयुगल को परिणत करते हुए उसका जोड़ साँधना चाहा, परन्तु साँधने में समर्थ न हो सके ।
तत्पश्चात् वह सुवर्णकार श्रेणी, कुम्भ राजा के पास आई । आकर दोनों हाथ जोड़ कर और जय-विजय शब्दों से वधा कर इस प्रकार निवेदन किया-'स्वामिन् ! आज आपने हम लोगों को बुला कर यह आदेश दिया था कि कुण्डलयुगल की संधि जोड़ कर मेरी आज्ञा वापिस लौटाओ । हम अपने स्थानों पर गये, बहुत उपाय किये, परन्तु इस संधि को जोड़ने के लिए शक्तिमान न हो सके । अतएव हे स्वामिन् ! हम दिव्य कुण्डलयुगल सरीखा दूसरा कुण्डलयुगल बना दें ।' सुवर्णकारों का कथन सुन कर और हृदयंगम करके कुम्भ राजा क्रुद्ध हो गया । ललाट पर तीन सलवट डाल कर इस प्रकार कहने लगा- अरे ! तुम कैसे सुनार हो इस कुण्डलयुगल का जोड़ भी सांध नहीं सकते ? ऐसा कहकर उन्हें देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी । तत्पश्चात् कुम्भ राजा द्वारा देशनिर्वासन की आज्ञा पाये हुए वे सुवर्णकार अपने-अपने घर आकर अपने भांड, पात्र और उपकरण आदि लेकर मिथिला नगरी के बीचोंबीच होकर निकले । विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ काशी जनपद था और जहाँ वाणारसी नगरी
थी. वहाँ आये । उत्तम उद्यान में गाडी-गाडे छोड कर महान अर्थवाले राजा के योग्य बहमल्य
उपहार लेकर, वाणारसी नगरी के बीचोंबीच होकर जहाँ काशीराज शंख था वहाँ आये । दोनों हाथ जोड़ कर यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर वह उपहार राजा के सामने रख कर शंख राजा से इस प्रकार निवेदन किया
___हे स्वामिन् ! राजा कुम्भ के द्वारा मिथिला नगरी से निर्वासित हुए हम सीधे यहाँ आये हैं । हे स्वामिन् ! हम आपकी भुजाओं की छाया ग्रहण किये हुए निर्भय और उद्वेगरहित होकरसुख-शान्तिपूर्वक निवास करना चाहते हैं ।' तब काशीराज शंख ने उन सुवर्णकारों से कहा-'देवानुप्रियों ! कुम्भ राजा ने तुम्हें देश-निकाले की आज्ञा क्यों दी ?' तब सुवर्णकारों ने शंख राजा से कहा-'स्वामिन् ! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती देवी की आत्मजा मल्ली कुमारी के कुण्डलयुगल का जोड़ खुल गया था । तब कुम्भ राजा ने सुवर्णकारों की श्रेणी को बुलाया । यावत् देशनिर्वासन की आज्ञा दे दी ।' शंख राजा ने सुवर्णकारों से कहा-'देवानुप्रियों! कुम्भ राजा की पुत्री और प्रभावती की आत्मजा विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली कैसी है ?' तब सुवर्णकारों ने शंखराजा से कहा-'स्वामिन् ! जैसी विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है, वैसी