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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[१३४] कानों को सुख देनेवाले और मन को हरण करनेवाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे उस पर दुगना राग उत्पन्न हो गया ! वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप की और यौवन की लक्ष्मी को स्मरण करने लगा । उसके द्वारा हर्ष साथ किये गये आलिंगनों को, विब्बोकों को, विलासों को, विहसित को, कटाक्षों को, कामक्रीड़ाजनित निःश्वासों को, स्त्री के इच्छित अंग के मर्दन को, उपललित को, स्थित को, गति को, प्रणय- कोप को तथा प्रसादित को स्मरण करते हुए जिनरक्षित की मति राग से मोहित हो गई । वह विवश हो गया-कर्म के अधीन हो गया और वह उसके मुखकी तरफ देखने लगा । जिनरक्षित को देवी पर अनुराग उत्पन्न हुआ, अतएव मृत्यु रूपी राक्षस उसके गले में हाथ डालकर उसकी मति फेर दी, यह बात शैलक यक्ष ने अवधिज्ञान से जान ली और स्वस्थता से रहित उसको धीरे-धीरे अपनी पीठ से गिरा दिया ।
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उस निर्दय और पापिनी रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरता देख कर कहा - 'रे दास ! तू मरा ।' इस प्रकार कह कर, समुद्र के जल तक पहुँचने से पहले ही, दोनों हाथों से पकड़ कर, चिल्लाते हुए जिनरक्षित को ऊपर उछाला । जब वह नीचे की ओर आने लगा तो से तलवार की नोक पर झेल लिया । उसके टुकड़े-टुकड़े कर
| अभिमान से वध किये हुए जिनरक्षित के रुधिर से व्याप्त अंगोपांगों को ग्रहण करके, दोनों हाथों की अंजलि करके, उसने उत्क्षिप्त बलि की तरह, चारों दिशाओं में फेंका ।
[१३५] इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्यउपाध्याय के समीप प्रव्रजित होकर, फिर से मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का आश्रय लेता है, याचना करता है, स्पृहा करता है, या दृष्ट अथवा अदृष्ट शब्दादिक के भोग की इच्छा करता है, वह मनुष्य इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुतसी श्राविकाओं द्वारा निन्दनीय होता है, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है । उसकी दशा जिनरक्षित जैसी होती है ।
[१३६] पीछे देखनेवाला जिनरक्षित छला गया और पीछे नहीं देखनेवाला जिनपालित निर्विघ्न अपने स्थान पर पहुँच गया । अतएव प्रवचनसार में आसक्तिरहित होना चाहिए, [१३७] चारित्र ग्रहण करके भी जो भोगों की इच्छा करते हैं, वे घोर संसार-सागर में .. गिरते हैं और जो भोगों की इच्छी नहीं करते, वे संसार रूपी कान्तार पार कर जाते हैं । [१३८] तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जिनपालित के पास आई । आकर बहुतसे अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, श्रृंगार वाले और करुणाजनक उपसर्गों द्वारा जब उसे चलायमान करने, क्षुब्ध करने एवं मन को पलटने में असमर्थ रही, तब वह मन से थक गई, शरीर से थक गई, पूरी तरह ग्लानि को प्राप्त हुई और अतिशय खिन्न हो गई । तब वह जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई । वह शैलक यक्ष, जिनपालित के साथ, लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर चलता रहा । चम्पा नगरी के बाहर श्रेष्ठ उद्यान में जिनपालित को अपनी पीठ से नीचे उतारा। इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिय ! देखों, यह चम्पा नगरी दिखाई देती हैं । ' यह कह कर उसने जिनपालित छुट्टी लेकर वापिस लौट गया ।
[१३९] तदनन्तर जिनपालित ने चम्पा में प्रवेश किया और जहाँ अपना घर तथा