________________
१४८
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
विदेहराजवरकन्या मल्ली के रूप यौवन और लावण्य में मूर्च्छित, गृद्ध यावत् अत्यन्त लालायित होकर अनिमेष दृष्टि से बार-बार उसे देखने लगे ।
तत्पश्चात् विदेह राजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् कौतुक, मंगल,प्रायश्चित्त किया । वह समस्त अलंकारों से विभूषित होकर बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से यावत् परिवृत होकर जहाँ जालगृह था और जहाँ स्वर्ण की वह प्रतिमा थी, वहाँ आई । आकर उस स्वर्णप्रतिमा के मस्तक से वह कमल का ढक्कन हटा दिया । ढक्कन हटाते ही उसमें से ऐसी दुर्गन्ध छूटी कि जैसे मरे साँप की दुर्गन्ध हो, यावत् उससे भी अधिक अशुभ | तत्पश्चात् जितशत्रु वगैरह ने उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर-घबरा कर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुँह बँक लिया । मुँह ढंक कर वे मुख फेर कर खड़े हो गये । तब विदेहराजवर कन्या मल्ली ने उन जितशत्रु आदि से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! किस कारण आप अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र से मुँह ढंक कर यावत् मुँह फेर कर खड़े हो गये ।' तब जितशत्रु आदि ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से कहा-'देवानुप्रिये ! हम इस अशुभ गंध से घबरा कर अपने-अपने यावत् उत्तरीय वस्त्र से मुख ढंक कर विमुख हुए हैं ।' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने उन जितशत्रु आदि राजाओं से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! इस स्वर्णमयी प्रतिमा में प्रतिदिन मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में से एक-एक पिण्ड डालते-डालते यह ऐसा अशुभ पुद्गल का परिणमन हुआ, तो यह औदारिक शरीर को कफ को झरानेवाला है, खराब उच्छ्वास और निःश्वास निकालने वाला है, अमनोज्ञ मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना,पड़ना, नष्ट होना और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है, तो इसका परिणमन कैसा होगा ? अतएव हे देवानुप्रियों ! आप मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में राग मत करो, गृद्धि मत करो, मोह मत करो और अतीव आसक्त मत होओ ।'
मल्ली कुमारी ने पूर्वभव का स्मरण कराते हुए आगे कहा-'इस प्रकार हे देवानुप्रियो ! तुम और हम इससे पहले के तीसरे भव में, पश्चिम महाविदेहवर्ष में, सलिलावती विजय में, वीतशोका नामक राजधानी में महाबल आदि सातों-मित्र राजा थे । हम सातों साथ जन्में थे, यावत् साथ ही दीक्षित हुए थे । हे देवानुप्रियो ! उस समय इस कारण से मैंने स्त्रीनामगोत्र कर्म का उपार्जन किया था-अगर तुम लोग एक उपवास करके विचरते थे, तो मैं तुम से छिपकर बेला करती थी, इत्यादि पूर्ववत् । तत्पश्चात् हे देवानुप्रियो ! तुम कालमास में काल करके-यथासमय देह त्याग कर जयन्त विमान में उत्पन्न हुए । वहाँ तुम्हारी कुछ कम बत्तीस सागरोपम की स्थिति हुई । तत्पश्चात् तुम उस देवलोक से अनन्तर शरीर त्याग करके-चय करके-इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्पन्न हुए, यावत् अपने-अपने राज्य प्राप्त करके विचर रहे हो । मैं उस देवलोक से आयु का क्षय होने पर कन्या के रूप में आई हूँ-जन्मी हूँ ।
[९४] 'क्या तुम वह भूल गये ? जिस समय हे देवानुप्रिय ! तुम जयन्त नामक अनुत्तर विमान में वास करते थे ? वहाँ रहते हुए 'हमें एक दूसरे को प्रतिबोध देना चाहिए' ऐसा परस्पर में संकेत किया था । तो तुम देवभव का स्मरण करो ।' ।
[१५] तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली से पूर्वभव का यह वृत्तान्त सुनने और हृदय में धारण करने से, शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं और जातिस्मरण को आच्छादित करने वाले कर्मों के क्षयोपशम के कारण, ईहा-अपोह तथा