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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
संहनन था । वह मध्यदेश में सुख-सुखे विचर कर जहाँ सम्मेद पर्वत था, वहाँ आकर उन्होंने सम्मेदशैल के शिखर पर पादोपगमन अनशन अंगीकार कर लिया । मल्ली अरहन्त एक सौ वर्ष गृहवास में रहे । सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष केवली-पर्याय पालकर, कुल पचपन हजार वर्ष की आयु भोग कर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास, दूसरे पक्ष चैत्र मास के शुक्लपक्ष की चौथ तिथि में, भरणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, अर्द्धरात्रि के समय, आभ्यन्तर परिषद् की पाँच सौ साध्वियों और बाह्य परिषद् के पाँच सौ साधुओं के साथ, निर्जल एक मास के अनशनपूर्वक दोनों हाथ लम्बे रखकर, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों के क्षीण होने पर सिद्ध हुए । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णित निर्वाणमहोत्सव कहना । फिर देवों नन्दीश्वरद्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव करके वापस लौटे ।
इस प्रकार निश्चय ही, हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने आठवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया हैं । मैंने जो सुना, वही कहता हूँ ।
(अध्ययन-९ माकन्दी) [११०] 'भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण को प्राप्त भगवान् महावीर ने नौवें ज्ञातअध्ययन का क्या अर्थ प्ररूपण किया है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में चम्पा नगरी थी । कोणिक राजा था । चम्पानगरी के बाहर ईशानदिक्कोण में पूर्णभद्र चैत्य था । चम्पानगरी में माकन्दी सार्थवाह निवास करता था । वह समृद्धिशाली था । भद्रा उसकी भार्या थी । उसे दो सार्थवाहपुत्र थे । जिनपालित और जिनरक्षित । वे दोनों माकन्दीपुत्रमें एक बारकिसी समय इस प्रकार कथासमुल्लाप हुआ -
_ 'हम लोगों ने पोतवहन से लवणसमुद्र को ग्यारह बार अवगाहन किया है । सभी बार हम लोगों ने अर्थ की प्राप्ति की, करने योग्य कार्य सम्पन्न किये और फिर शीघ्र बिना विघ्नको
अपने घर आए । हे देवानुप्रिय ! बारहवीं बार भी पोतवहन से लवण समुद्र में अवगाहन करना हमारे लिए अच्छा रहेगा । इस प्रकार परस्पर विचार करके अपने मातापिता के पास आकर वे बोले-'हे माता-पिता ! आपकी अनुमति प्राप्त करके हम बारहवीं बार लवणसमुद्र की यात्रा करना चाहते हैं । हम लोग ग्यारह बार पहले यात्रा कर चुके हैं और सकुशल सफलता प्राप्त करके लौटे हैं ।' तब माता-पिता ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा- 'हे पुत्रों ! यह तुम्हारे बाप-दादा से प्राप्त संपत्ति यावत् बंटवारा करने के लिए पर्याप्त है । अतएव पुत्रो ! मनुष्य संबन्धी विपुल ऋद्धि सत्कार के समुदाय वाले भोगों को भोगों । विघ्न-बाधाओं से युक्त और जिसमें कोई आलम्बन नहीं ऐसे लवण समुद्र में उतरने से क्या लाभ है ? हे पुत्रों ! बारहवीं यात्रा सोपसर्ग भी होती है । अतएव तुम दोनों बारहवीं बार लवणसमुद्र में प्रवेश मत करो, जिससे तुम्हारे शरीर को व्यापत्ति न हो ।'
तत्पश्चात् माकन्दीपुत्रों ने माता-पिता से दूसरी बार और तीसरी बार भी यहीं बात की। तब माता-पिता जब उन माकन्दीपुत्रों को सामान्य कथन और विशेष कथन के द्वारा समझाने में समर्थ न हुए; तब इच्छा न होने पर भी उन्होंने अनुमति दे दी । वे माता-पिता की अनुमति पाये हुए माकंदीपुत्र गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का माल जहाज में भर कर अर्हन्नक की भाँति लवणसमुद्र में अनेक सैंकड़ों योजन तक गये ।