________________
१२८
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद वह पांच शालि के दाने ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ धन्य-सार्थवाह था, वहाँ आई । आकर धन्य-सार्थवाह के हाथ में वे शालि के पांच दाने दे दिये । उस समय धन्य-सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! क्या यह वही पांच शालि-अक्षत हैं या दूसरे हैं ?' रक्षिका ने धन्य-सार्थवाह को उत्तर दिया-'तात ! ये वही शालिअक्षत हैं, धन्य ने पूछा - 'पुत्री ! कैसे ?' रक्षिका बोली-'तात ! आपने इससे पहले पांचवें वर्ष में शालि के पांच दाने दिये थे । तब इन पांच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बांधा, यावत् तीनों संध्याओं मे सारसंभाल करती रहती है। अतएव. हे तात ! ये वही शालि के दाने हैं. दसरे नहीं।'
तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सुनकर हर्षित और संतुष्ट हुआ । उसे अपने घर के हिरण्य की, कांसा आदि बर्तनों की, दूष्य-रेशमी आदि मूल्यवान् वस्त्रों की, विपुल धन, धान्य, कनक रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, प्रवाल लाल-रत्न आदि स्वापतेय की भाण्डामारिणी नियुक्त कर दिया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! यावत् (दीक्षित होकर) जो साधु या साध्वी पांच महाव्रतों की रक्षा करता हैं, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुतसी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का अर्चनीय होता हैं, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, होता हैं, जैसे वह रक्षिका ।
रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए । विशेष यह है कि जब धन्य सार्थवाह ने उससे पांच दाने मांदे तो उसने कहा-'तात ! आप मुझे बहुत-से गाड़े-गाड़ियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पांच शालि के दाने लौटाऊँ ।' तब रोहिणी ने धन्य-सार्थवाह से कहा'तात ! इससे पहले के पांचवें वर्ष में इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के समक्ष आपने पाँच दाने दिये थे । यावत् वे अब सैकड़ों कुम्भ प्रमाण हो गये हैं, इत्यादि पूर्वोक्त दानों की खेती करने, संभालने आदि का वृत्तान्त दोहरा लेना चाहिए । इस प्रकार हे तात ! मैं आपको वह पांच शालि के दाने गाडा-गाड़ियों में भर कर देती हूँ।
धन्य-सार्थवाह ने रोहिणी को बहुत-से छकड़ा-छकड़ी दिये । रोहिणी अपने कुलगृह आई । कोठार खोला | पल्य उघाड़े, छकड़ा-छकड़ी भरे । भरकर राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना घर था और जहाँ धन्य-सार्थवाह था, वहाँ आ पहुँची । तब राजगृह नगर में श्रृंगाटक आदि मार्गों में बहुत से लोग आपस में इस प्रकार प्रशंसा करने लगे- धन्यसार्थवाह धन्य है, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी है, जिसने पांच शालि के दाने छकड़ा-छकड़ियों में भर कर लौटाये ।' धन्य-सार्थवाह उन पांच शालि के दानों को छकड़ा-छकड़ियों द्वारा लौटाये देखता है । हृष्ट-तुष्ट होकर उन्हें स्वीकार करके उसने उन्हीं मित्रों एवं ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबन्धीजनों तथा परिजनों के सामने तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष रोहिणी पुत्रवधू को उस कुलगृहवर्ग के अनेक कार्यों में यावत् रहस्यों में पूछने योग्य यावत् गृह का कार्य चलानेवाली और प्रमाणभूत नियुक्त किया ।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी आचार्य या उपाध्यान के निकट दीक्षित होकर, अपने पांच महाव्रतों में वृद्धि करते हैं-उन्हें उत्तरोत्तर अधिक निर्मल बनाते हैं, वे इसी भव में बहुत से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं के पूज्य होकर यावत् संसार से मुक्त हो जाने हैं जैसे वह रोहिणी बहुजनों की प्रशंसापात्र बनी । हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है । वही मैंने तुमसे कहा हैं ।
अध्ययन-७-का-मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवादपूर्ण