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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/८१
१३३ अश्विनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर, सभी ग्रहों के उच्च स्थान पर स्थित होने पर, एसे समय में, आरोग्य-आरोग्यपूर्वक उन्नीसवें तीर्थकर को जन्म दिया ।
[८२] उस काल और उस समय में अधोलोक में बसने वाली महत्तरिका दिशाकुमारिकाएं आई इत्यादि जन्म का वर्णन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति अनुसार समझ लेना । विशेषता यह है कि मिथिला नगरी में,कुम्भ राजा के भवन में, प्रभावती देवों को आलापक कहना । यावत् देवों ने जन्माभिषेक करके नन्दीश्वर द्वीप में जाकर महोत्सव किया । तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने एवं बहुत-से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने तीर्थंकर का जन्माभिषेक किया, फिर जातकर्म आदि संस्कार किये, यावत् नामकरण किया-क्योंकि जब हमारी यह पुत्री माता के गर्भ में आई थी, तब माल्य की शय्या में सोने का दोहद उत्पन्न हुआ था, अतएव इसका नाम 'मल्ली' हो । महाबल के वर्णन समान जानना यावत् मल्ली कुमारी क्रमशः वृद्धि को प्राप्त हुई।
८३] देवलोक से च्युत हुई वह भगवती मल्ली वृद्धि को प्राप्त हुई तो अनुपम शोभा से सम्पन्न हो गई, दासियों और दासों से परिवृत हुई और पीठमों से धिरी रहने लगी ।
[८४] उनके मस्तक के केश काले थे, नयन सुन्दर थे, होठ बिम्बफल के समान थे, दांतों की कतार श्वेत थी और शरीर श्रेष्ठ कमल के गर्भ के समान गौवर्ण वाला था । उसका श्वासोच्छ्वास विकस्वर कमल के समान गंध वाला था ।
[८५] तत्पश्चात् विदेहराज की वह श्रेष्ठ कन्या बाल्यावस्था से मुक्त हुई यावत् तथा रुप, यौवन और लावण्य से अतीव-अतीव उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीखाली हो गई । तत्पश्चात् विदेहराज की वह उत्तम कन्या मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हो गई, तब वह उन छहों राजाओं को अपने विपुल अवधिज्ञान से जानती-देखती हुई रहने लगी । वे इस प्रकार-प्रतिबुद्धि यावत् जितशत्रु को बार-बार देखती हुई रहने लगी । तत्पश्चात् विदेहराज की उत्तम कन्या मल्ली ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया-बुलाकर कहा- 'देवानुप्रियो ! जाओ और अशोकवाटिका में एक बड़ा मोहनगृह बनाओ, जो अनेक सैकड़ों खम्भों से बना हुआ हो । उस मोहनगृह के एकदम मध्य भाग में छह गर्भगृह बनाओ । उन छहों गर्भगृहों के ठीक बीच में एक जालगृह बनाओ। उस जालगृह के मध्य में एक मणिमय पीठिका बनाओं ।' यह सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार सर्व निर्माण कर आज्ञा वापिस सौंपी ।
तत्पश्चात् उस मल्ली कुमारी ने मणिपीठिका के ऊपर अपनी जैसी, अपनी जैसी त्वचावाली, अपनी सरीखी उम्र की दिखाई देनेवाली, समान लावण्य, यौवन और गुणों से युक्त एक सुवर्ण की प्रतिमा बनवाई । उस प्रतिमा के मस्तक पर छिद्र था और उस पर कमल का ढक्कन था । इस प्रकार की प्रतिमा बनवा कर जो विपुल अशन, पान, खाद्या और स्वाद्य वह खाती थी, उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाध में से प्रतिदिन एक-एक पिण्ड लेकर उस स्वर्णमयी, मस्तक में छेद वाली यावत् प्रतिमा में, मस्तक में से डालती रहती थी । तत्पश्चात् उस स्वर्णमयी यावत् मस्तक में छिद्र वाली प्रतिमा में एक-एक पिण्ड डाल-डाल कर कमल का ढक्कन ढंक देती थी । इससे उसमें ऐसी दुर्गन्ध उत्पन्न होती थी जैसे सर्प के मत कलेवर की हो, यावत् औरवह भी मरने के पश्चात् सड़े-गले,दुर्वर्ण एवं दुर्गन्ध वाले, कीड़ों के समूह जिसमें बिलबिला रहे हों, जो अशुचिमय, विकृत तथा देखने में बीभत्स हो । क्या उस