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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
मत के अनुसार जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह सब तत्काल पृथ्वी से मांज दी जाती है
और फिर शुद्ध जल से धो ली जाती है । तब अशुचि, शुचि हो जाती है । निश्चय ही जीव जलस्नान से अपनी आत्मा को पवित्र करके बिना विघ्न के स्वर्ग प्राप्त करते हैं ।
तत्पश्चात् सुदर्शन, शुक पब्रिाजक के धर्म को श्रवण करके हर्षित हुआ । उसने शुक से शौचमूलक धर्म को स्वीकार किया । स्वीकार करके पब्रिाजकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम और वस्त्र से प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् अशन आदि दान करता हुआ रहने लगा । तत्पश्चात् वह शुक पखिाजक सौगंधिका नगरी से बाहर निकला । निकल कर जनपद-विहार से विचरने लगा-देश-देशान्तर में भ्रमण करने लगा । उस काल और उस समय में थावच्चापुत्र नामक अनगार एक हजार साधुओं के साथ अनुक्रमण से विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए और सुखे-सुखे विचरते हुए जहाँ सौगंधिका नामक नगरी था और जहाँ नीलाशोक नामक उद्यान था, वहाँ पधारे ।
थावच्चापुत्र अनगार का आगमन जानकर परिषद् निकली । सुदर्शन भी निकला । उसने थावच्चापुत्र अनगार को प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके वह बोला-'आपके धर्म का मूल क्या है ? तब सुदर्शन के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से कहा-हे सुदर्शन ! धर्म विनयमूलक कहा गया है। यह विनय भी दो प्रकार का कहा है-अगार-विनय और अनगार विनय । इनमें जो अगारविनय है, वह पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक-प्रतिमा रूप है । अनगार-विनय पाँच महाव्रत रूप है, यथा-समस्त प्राणातिपात से विरमण, समस्त मृषावाद से विरमण, समस्त अदत्तादान से विरमण, समस्त मैथुन से विरमण और समस्त परिग्रह से विरमण । इसके अतिरिक्त समस्त रात्रि-भोजन से विरमण, यावत् समस्त मिथ्यादर्शन शल्य से विरमण, दस प्रकार का प्रत्याख्यान और बारह भिक्षुप्रतिमाएँ । इस प्रकार दो तरह के विनयमूलक धर्म से क्रमशः आठ कर्मप्रकृतियों को क्षय करके जीवे लोक के अग्रभाग में-मोक्ष में प्रतिछित होते हैं । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से कहा-सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा गया है ? सुदर्शन ने उत्तर दिया-देवानुप्रिय ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है । तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से कहा-हे सुदर्शन ! जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन ! उस रुधिर से ही धोये जानेवाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी ? सुदर्शन ने कहा-यह अर्थ समर्थ नहीं,
इसी प्रकार है सुदर्शन ! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से शुद्धि नहीं हो सकती, जैसे उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जानेवाले वस्त्र की शुद्धि नहीं होती । हे सुदर्शन ! जैसे यथानामक कोई पुरुष एक बड़े रुधिरलिप्त वस्त्र को सज्जी के खार के पानी में भिगोवे, फिर पाकस्थान पर चढ़ावे, चढ़ाकर उष्णता ग्रहण करावे और फिल स्वच्छ जल से धोवे, तो निश्चय हे सुदर्शन ! यह रुधिर से लिप्त वस्त्र, सज्जीखार के पानी में भीग कर चूल्हे पर चढ़कर, उबलकर और शुद्ध जल से प्रक्षालित होकर शुद्ध हो जाता हैं ?' (सुदर्शन कहता है) 'हाँ, हो जाता हैं । इसी प्रकार हे सुदर्शन ! हमारे धर्म के अनुसार भी प्राणातिपात के विरमण से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण से शुद्धि होती है, जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र की यावत् शुद्ध जल से धोये जाने पर शुद्धि होती है ।