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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
से अनगार हुए । तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंचयोनि रूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व-रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियोंकी अनुकम्पा से प्रेरित होकर यावत् अपना पैर अधर ही रखा था, नीचे नहीं टिकाया था, तो फिर हे मेघ ! इस जन्म में तो तुम विशाल कुल में जन्मे हो, तुम्हें उपघात से रहित शरीर प्राप्त हुआ है । प्राप्त हुई पांचों इन्द्रियों का तुमने दमन किया है और उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम से युक्त हो और मेरे समीप मुंडित होकर गृहवास का त्याग कर अगेही बने हो, फिर भी पहली और पिछली रात्रि के समय श्रमण निर्ग्रन्थ वाचना के लिए यावत् धर्मानुयोग के चिन्तन के लिए तथा उच्चार-प्रस्त्रवण के लिए आते-जाते थे, उस समय तुम्हें उनके हाथ का स्पर्श हुआ, पैर का स्पर्श हुआ, यावत् रजकणों से तुम्हारा शरीर भर गया, उसे तुम सम्यक् प्रकार से सहन न कर सके ! बिना क्षुब्ध हुए सहन न कर सके ! अदीनभाव से तितिक्षा न कर सके ! और शरीर को निश्चल रख कर सहन न कर सके !
तत्पश्चात् मेघकुमार अनगार को श्रमण भगवान् महावीर के पास से यह वृत्तान्त सुनसमझ कर, शुभ परिणामों के कारण, प्रशस्त अध्यवसायों के कारण, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण और जातिस्मरण को आवृत करनेवाले ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम के कारण, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए, संज्ञी जीवों को प्राप्त होनेवाला जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ । उससे मेघ मुनि ने अपना पूर्वोक्त वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा मेघकुमार को पूर्व वृत्तान्त स्मरण करा देने से दुगुना संवेग प्राप्त हुआ । उसका मुख आनन्द के आँसुओं से परिपूर्ण हो गया । हर्ष के कारण मेघधारा से आहत कदंबपुष्प की भाँति उसके रोम विकसित हो गये । उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा - भंते ! आज से मैंने अपने दोनों नेत्र छोड़ कर समस्त शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित किया । इस प्रकार कह कर मेघकुमार ने पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके इस भाँति कहा-'भगवन् ! मेरी इच्छा है कि अब आप स्वयं ही दूसरी बूर मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं ही मुंडित करें, यावत् स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचर-गोचरी के लिए भ्रमण यात्रा-पिण्डविशुद्धि आदि संयमयात्रा तथा मात्रा-प्रमाणयुक्त आहार ग्रहण करना, इत्यादि स्वरूप वाले श्रमणधर्म का उपदेश दें ।
तत्पश्चात श्रमण भगवान् महावीर ने मेघकुमार को स्वयमेव पुनः दीक्षित किया, यावत् स्वयमेव यात्रा-मात्रा रूप धर्म को उपदेश दिया । कहा-'हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार गमन करना चाहिए, बैठना चाहिए, शयन करना चाहिए, आहार करना चाहिए और बोलना चाहिए । प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों की रक्षा रूप संयम में प्रवृत्त रहना चाहिए | तात्पर्य यह है कि मुनि को प्रत्येक क्रिया यतना के साथ करना चाहिए । तत्पश्चात् मेघ मुनि ने श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार के उस धार्मिक उपदेश को सम्यक् प्रकार से अंगीकार किया। अंगीकार करके उसी प्रकार वर्ताव करने लगे यावत् संयम में उद्यम करने लगे । तब मेघ ईसिमिति आदि से युक्त अनगार हुए (अनगार वर्णन जानना) ।
उन मेघ मुनि ने श्रमण भगवान महावीर के निकट रह कर तथा प्रकार के स्थविर मुनियों से सामायिक से आरम्भ करके ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया । बहुत से