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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
। उन दोनों कछुओं में से एक कछुए ने उन पापी सियारों को बहुत समय पहले और दूर गया जान कर धीरे-धीरे अपना एक पैर बाहर निकाला । उन पापी सियारों ने देखा कि उस कछुए ने धीरे-खीरे एक पैर निकाला है । यह देखकर वे दोनो उत्कृष्ट गति से शीघ्र, चपल, त्वरित, चंड, जययुक्त और वेगयुक्त रूप से जहाँ वह कछुआ था, वहाँ गये । उसके मांस और रक्त का आहार किया । आहार करके वे कछुए को उलट-उलट कर देखने लगे, किन्तु यावत् उसकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हुए । तब वे दूसरी बार हट गए । इसी प्रकार चारों पैरों के विषय में कहना यावत् कछुए ने ग्रीवा बाहर निकाली । यह देख कर वे शीघ्र ही उसके समीप
आए । उन्होंने नाखूनों से विदारण करके और दाँतों से तोड़ कर उसके कपाल को अलग कर दिया । अलग करके कछुए को जीवन-रहित कर दिया । जीवन-रहित करके उसके मांस और रुधिर का आहार किया ।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारो जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य या उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर पाँचों इन्द्रियों का गोपन नहीं करते हैं, वे इसी भव में बहुत साधुओं, साध्वियों, श्रावकों, श्राविकाओं द्वारा हीलतता करने योग्य होते हैं और परलोक में भी बहुत दंड पाते हैं, यावत् अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं, जैसे अपनी इन्द्रियों-अंगों का गोपन न करने वाला वह कछुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ ।
तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ दूसरा कछुआ था, वहाँ पहुँचे । पहुँच कर उस कछुए को चारों तरफ से, सब दिशाओं से उलट-उलट कर देखने लगे, यावत् दांतों से तोड़ने लगे, परन्तु उसकी चमड़ी का छेदन करने में समर्थ न हो सके । तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार दूर चले गये किन्तु कछुए ने अपने अंग बाहर न निकाले, अतः वे उस कछुए को कुछ भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न ने कर सके । यावत् उसकी चमड़ी छेदने में भी समर्थ न हो सके । तब वे श्रान्त, क्लान्त और परितान्त होकर तथा खिन्न होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए । तत्पश्चात् उस कछुए ने उन पापी सियारों को चिरकाल से गया और दूर गया जान कर धीरे-धीरे अपनी ग्रीवा बाहर निकाली । ग्रीवा निकालकर सब दिशाओं में अवलोकन किया । अवलोकन करके एकसाथ चारों पैर बाहर निकाले और उत्कृष्ट कूर्मगति से दौड़ता-दौड़ता जहां मृतगंगातीर नामक हृद था, वहां जा पहुँचा। वहाँ आकर मित्र, ज्ञात, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों से मिल गया ।
हे आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी पांचों इन्द्रियों का गोपन करता है, जैसे उस कछुए ने अपनी इन्द्रियों के गोपन करके रखा था,वह इसी भव में बहुसंख्यक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय वन्दनीय नमस्करणीय पूजनीय सत्करणीय और सम्माननीय होता है । वह कल्याण मंगल देवस्वरूप एवं चैत्यस्वरूप तथा उपासनीय बनता है । परलोक में उसे हाथों, कानों और नाक के छेदन के दुःख नहीं भोगने पड़ते । हृदय के उत्पाटन, वृषणों-अंडकोषों के उखाड़ने, फांसी चढ़ने आदि के कष्ट नहीं झेलने पड़ते । वह अनादि-अनन्त संसार-कांतार को पार कर जाता है । हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने चौथे ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ कहा है, वैसा ही मैं कहतै हूँ ।
अध्ययन-४-मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण