________________
ज्ञाताधर्मकथा - १/-/५/६४
जहाँ
से घिरे हुआ द्वारका नगरा के बीचोंबीच होकर बाहर निकले । जहाँ गिरनार पर्वत था, नन्दनवन उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और जहाँ अशोक वृक्ष था, उधर पहुँचे । पहुँचकर अर्हत् अरिष्टनेमि के छत्रातिछत्र पताकातिपताका, विद्याधरों, चारणों एवं जृंभक देवों के नीचे उतरते और ऊपर चढ़ते देखा । यह सब देखकर वे विजय गंधहस्ती से नीचे उतर गए । उतरकर पांच अभिग्रह करके अर्हत् अरिष्टनेमि के सामने गये । इस प्रकार भगवान् के निकट पहुँच कर तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिमा की, उन्हें वन्दन - नमस्कार किया । फिर अर्हत् अरिष्टनेमि से न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, अंजलिबद्ध सम्मुख होकर पर्युपासना करने लगे ।
११३
[ ६५ ] मेघकुमार की तरह थावच्चापुत्र भी भगवान् को वन्दना करने के लिए निकला । उसी प्रकार धर्म को श्रवण करके और हृदय में धारण करके जहाँ थावच्चा गाथापत्नी थी, वहाँ आया । आकर माता के पैरों को ग्रहण किया । मेघकुमार समान थावच्चापुत्र का वैराग्य निवेदना समझनी । माता जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत-सी आघवणा, पन्नवणा-सन्नवणा, विन्नवणा, सामान्य कहने, विशेष कहने, ललचाने और मनाने में समर्थ न हुई, तब इच्छा न होने पर भी माता ने थावच्चापुत्र बालक का निष्क्रमण स्वीकार कर लिया । विशेष यह कहा कि- 'मैं तुम्हारा दीक्षा महोत्सव देखना चाहती हूँ ।' तब थावच्चापुत्र मौन रह गया । तब गाथापत्नी थावद्या आसन से उठी । उठकर महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली, महान् पुरुषों के योग्य तथा राजा के योग्य भेंट ग्रहण की । मित्र ज्ञाति आदि से परिवृत होकर जहाँ कृष्ण वासुदेव के श्रेष्ठ भवन का मुख्य द्वार का देशभाग था, वहाँ आई । प्रतीहार द्वारा दिखलाये मार्ग से जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ आई । दोनों हाथ जोड़कर कृष्ण वासुदेव को बधाया । बधाकर वह महान् अर्थवाली, महामूल्य वाली महान् पुरुषों के योग्य और राजा के योग्य भेंट सामने रखी । इस प्रकार बोली
हे देवानुप्रिय ! मेरा थावच्चापुत्र नामक एक ही पुत्र है । वह मुझे इष्ट है, कान्त है, यावत् वह संसार के भय से उद्विग्न होलक अरिहन्त अरिष्टनेमि के समीप गृहत्याग कर अनगारप्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हैं । मैं उसका निष्क्रमण-सत्कार करना चाहती हूँ । अतएव हे देवानुप्रिय ! प्रव्रज्या अंगीकार करनेवाले थावच्चापुत्र के लिए आप छत्र, मुकुट और चामर प्रदान करें, यह मेरी अभिलाषा है । कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गाथापत्नी से कहा- देवानुप्रिये ! तुम निश्चिन्त और विश्वस्त रहो । मैं स्वयं ही थावच्चापुत्र बालक का दीक्षा - सत्कार करूँगा । कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय नामक उत्तम हाथी पर आरूढ़ होकर जहाँ थावच्चा गाथापत्नी का भवन था वहीं आये । थावच्चापुत्र से बोले - हे देवानुप्रिय ! तुम मुंडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण मत करो । मेरी भुजाओं की छाया के नीचे कह कर मनुष्य संबन्धी विपुल कामभोगों को भोगो । में केवल तुम्हारे ऊपर होकर जानेवाले वायुकाय को रोकने में तो समर्थ नहीं हूँ किन्तु इसके सिवाय देवानुप्रिय को जो कोई भी सामान्य पीड़ा या विशेष पीड़ा उत्पन्न होगी, उस सबका निवारण करूँगा ।'
1
तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से कहा'देवानुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करनेवाले आते हुए मरण को रोक दें और शरीर पर आक्रमण करनेवाली एवं शरीर के रूप-सौन्दर्य का विनाश करनेवाली जरा को रोक सकें,
5 8