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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/२/४७
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करती हुई, विभाग करती हुई तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ।' दूसरे दिन प्रातः काल सूर्योदन होने पर धन्य सार्थवाह के पास आई । धन्य सार्थवाह से कहादेवानुप्रिय ! मुझे उस गर्भ के प्रभाव से ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और सुरक्षणा हैं जो अपने दोहद को पूर्ण करती हैं, आदि । अतएव हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा हो तो में भी दोहद पूर्ण करना चाहती हूँ । सार्थवाह ने कहा- जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो। उसमें ढील मत करो ।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह से आज्ञा पाई हुई भद्रा सार्थवाही हृष्ट-तुष्ट हुई । यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करके यावत् स्न तथा बलिकर्म करके यावत् पहनने और ओढ़ने का गीला वस्त्र धारण करके जहाँ नागायतन आदि थे, वहाँ आई । यावत् धूप जलाई तथा बलिकर्म एवं प्रणाम किया । प्रणाम करके जहाँ पुष्करिणी थी, वहाँ आई । आने पर उन मित्र, ज्ञाति यावत् नगर की स्त्रियों ने भद्रा सार्थवाही को सर्व आभूषणों से अलंकृत किया । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन एवं नगर की स्त्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम का यावत् परिभोग करके अपने दोहद को पूर्ण किया । पूर्ण करके जिस दिशा से वह आई थी, उसी दिशा में लौट गई । तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही दोहद पूर्ण करके सभी कार्य सावधानी से करती तथा पथ्य भोजन करती हुई यावत् उस गर्भ को सुखपूर्वक वहन करने लगी । तत्पश्चात् उस भद्रा सार्थवाही ने नौ मास सम्पूर्ण हो जाने पर और साढ़े सात दिन-रात व्यतीत हो जाने पर सुकुमार हाथों-पैरों वाले बालक का प्रसव किया ।
तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म नामक संस्कार किया । करके उसी प्रकार यावत् अशन, पान, खादिम और स्वादिन आहार तैयार करवाया । तैयार करवाकर उसी प्रकार मित्र ज्ञाति जनों आदि को भोजन कराकर इस प्रकार का गौण अर्थात् गुणनिष्पन्न नाम रखा क्योंकि हमारा यह पुत्र बहुत-सी नाग-प्रतिमाओं यावत् तथा वैश्रमण प्रतिमाओं की मनौती करने से उत्पन्न हुआ है, उस कारण हमारा यह पुत्र 'देवदत्त' नाम से हो, अर्थात् इसका नाम 'देवदत्त' रखा जाय । तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उन देवताओं की पूजा की, उन्हें दान दिया, प्राप्त धन का विभाग किया और अक्षयनिधि की वृद्धि की अर्थात् मनौती के रूप में पहले जो संकल्प किया था उसे पूरा किया ।
[४८] तत्पश्चात् वह पंथन नामक दास चेटक देवदत्त बालक का बालग्राही नियुक्त हुआ । वह बालक देवदत्त को कमर में लेता और लेकर बहुत से बच्चों, बच्चियों, बालकों, बालिकाओं, कुमारों और कुममारियों के साथ, उनसे परिवृत होकर खेलता रहता था । भद्रा सार्थवाही ने किसी समय स्नान किये हुए, बलिकर्म, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित किये हुए तथा समस्त अलङ्कारों से विभूषित हुए देवदत्त बालक को दास चेटक पंथक के हाथ में सौंपा। पंथक दास चेटक देवदत्त बालक को लेकर अपनी कटि में ग्रहण किया । वह अपने घर से बाहर निकला । बहुत-से बालकों, बालिकाओं बच्चों, बच्चिओं, कुमारों और कुमारिकाओं से परिवृत होकर राजमार्ग में आया । देवदत्त बालक को एकान्त में । बिठाकर बहुसंख्यक बालकों यावत् कुमारिकाओं के साथ, असावधान होकर खेलने लगा ।
इसी समय विजय चोर राजगृह नगर के बहुत-से द्वारो एवं अपद्वारों आदि को यावत्