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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/३७
होकर दावानल से अपनी रक्षा करने के लिए, जिस दिशा में तृण के प्रदेश और वृक्ष आदि हटाकर सफाचट प्रदेश बनाया था और जिधर वह मंडल बनाया था, उधर ही जाने का तुमने विचार किया । वहीं जाने का निश्चय किया ।
हे मेघ ! किसी अन्य समय पाँच ऋतुएँ व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की परस्पर की रगड़ से उत्पन्न दावानल के कारण यावत् अग्नि फैल गई और मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप आदि भाग-दौड़ करने लगे । तब तुम बहुत-से हाथियों आदि के साथ जहाँ वह मंडल था, वहाँ जाने के लिए दौड़े । उस मंडल में अन्य बहुत से सिंह, बाध, भेड़िया, द्वीपिका (चीते), रीछ, तरच्छ, पारासर, शरभ, श्रृंगाल, विडाल, श्वान, शूकर, खरगोश, लोमड़ी, चित्र और चिल्लल आदि पशु अग्नि के भय से घबरा कर पहले ही आ घुसे थे और एक साथ बिलधर्म से रहे हुए थे अर्थात् जैसे एक बिल में बहुत से मकोड़े ठसाठस भरे रहते हैं, उसी प्रकार उस मंडल में भी पूर्वोक्त प्राणी ठसाठस भरे थे । तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम जहाँ मंडल था, वहाँ आये और आकर उन बहुसंख्यक सिंह यावत् चिल्लल आदि के साथ एक जगह बिलधर्म से ठहर गये ।
हे मेघ ! तुमने 'पैर से शरीर खुजाऊँ' ऐसा सोचकर पैर ऊपर उठाया । इसी समय उस खाली हुई जगह में, अन्य बलवान् प्राणियों द्वारा प्रेरित-धकियाया हुआ एक शशक प्रविष्ट हो गया । तब हे मेघ ! तुमने पैर खुजा कर सोचा कि मैं पैर नीचे रखू, परन्तु शशक को पैर की जगह में घुसा हुआ देखा । देखकर प्राणों की अनुकम्पा से, वनस्पति रूप भूतों की अनुकम्पा से, जीवों की अनुकम्पा से तथा सत्त्वों की अनुकम्पा से वह पैर अधर ही उठाए रखा। तब उस प्राणानुकम्पा यावत् सत्त्वानुकम्पा से तुमने संसार परीत किया और मनुष्यायु का बन्ध किया । वह दावानल अढ़ाई अहोरात्र पर्यन्त उस वन को जला कर पूर्ण हो गया, उपरत हो गया, उपशान्त हो गया और बुझ गया ।
तब उस बहुत से सिंह यावत् चिल्ललक आदि पूर्वोक्त प्राणियों ने उन वन-दावानल को पूरा हुआ यावत् बुझा हुआ देखा और देखकर वे अग्नि के भय से मुक्त हुए । वे प्यास एवं भूख से पीड़ित होते हुए उस मंडल से बाहर निकले और सब दिशाओं और विदिशाओं फैल गये । हे मेघ ! उस समय तुम जीर्ण, जरा से जर्जरित शरीवाले, शिथिल एवं सलों वाली चमड़ी से व्याप्त गात्र वाले दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, शारीरिक शक्ति से हीन, सहारा न होने से निर्बल, सामर्थ्य से रहित और चलने फिरने की शक्ति से रहित एवं ढूंठ की भाँति स्तब्ध रह गये । 'मैं वेग से चलूँ' ऐसा विचार कर ज्यों ही पैर पसारा कि विद्युत् से आघात पाये हुए रजतगिरि के शिखर के समान तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े ।
तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम्हारे शरीर में उत्कट वेदना उत्पन्न हुई । शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में जलन होने लगी । तुम ऐसी स्थिति में रहे । तब हे मेघ ! तुम उस उत्कट यावत् दुस्सह वेदना को तीन रात्रि-दिवस पर्यन्त भोगते रहे । अन्त में सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी देवी की कूख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए ।
[३८] तत्पश्चात् हे मेघ ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आये-तुम्हारा जन्म हुआ। बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए । तब मेरे निकट मुंडित होकर गृहवास