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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/४०
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धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर गंधहस्ती के समान जिनेश्वर विचर रहे हैं, तब तक, कल रात्रि के प्रभात रूप में प्रकट होने पर यावत् सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना और नमस्कार करके, श्रवण भगवान महावीर की आज्ञा लेकर स्वयं ही पांच महाव्रतों को पुनः अंगीकार करके गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों तथा निर्ग्रन्थियों से क्षमायाचना करके तथारूपधारी एवं योगवहन आदि क्रियाएँ जिन्होंने की हैं, ऐसे स्थविर साधुओं के साथ धीरे-धीरे, विपुलाचल पर आरूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के सदृश पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन करके, संलेखना स्वीकार करके, आहार-पानी का त्याग करके, पादपोपगमन अनशन धारण करके मृत्यु की भी आकांक्षा न करता हुआ विचरूँ ।
मेघ मुनि ने इस प्रकार विचार करके दूसरे दिन रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पहुँचे । श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार, दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार करके न बहुत समीप और न बहुत दूर योग्य स्थान पर रह कर भगवान् की सेव करते हुए, नमस्कार करते हुए, सन्मुख विनय के साथ दोनों हाथ जोड़कर उपासना करने लगे । अर्थात् बैठ गए । 'हे मेघ !' इस प्रकार संबोधन करके श्रमण भगवान् ने मेघ अनगार से इस भाँति कहा-'निश्चय ही हे मेघ ! रात्रि में, मध्यरात्रि के समय, धर्म-जागरणा जागते हुए तुम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ है कि-इस प्रकार निश्चय ही मैं इस प्रधान तप के कारण दुर्बल हो गया हूँ, इत्यादि यावत् तुम तुरन्त मेरे निकट आये हो । हे मेघ ! क्या यह अर्थ समर्थ है ? अर्थात् यह बात सत्य है ?' मेघ मुनि बोले-'जी हाँ,' जब भगवान् ने कहा- 'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबंध न करो ।'
तत्पश्चात् मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुए । उनके हृदय में आनन्द हुआ । वह उत्थान करके उठे और उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार करके स्वयं ही पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया और गौतम आदि साधुओं को तथा साध्वियों को खमाया । खमा कर तथारूप और योगवहन आदि किये हुए स्थविर सन्तों के सात धीरे-धीरे विपुल नामक पर्वत पर आरूढ हुए । आरूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान पृथ्वी-शिलापट्टक की प्रतिलेखना की । प्रतिलेखना करके दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आरूढ हो गये । पूर्व दिशा के सन्मुख पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें मस्तक से स्पर्श करके इस प्रकार बोले-'अरिहन्त भगवान् को यावत् सिद्धि को प्राप्त सब तीर्थकरों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य यावत् सिद्धिगति को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो । वहाँ स्थित भगवान् को यहाँ स्थित मैं वन्दना करता हूँ । वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें । इस प्रकार कहकर भगवान् को वन्दना की; नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा
पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर के निकट समस्त प्राणातिपात का त्याग किया है, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, नाम, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, धर्म में अरति, अधर्म में रति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य, इन सब अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान किया है । अब भी मैं उन्हीं भगवान् के निकट