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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/१८
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मेघसमूह बगुलों की कतारों से शोभित हो रहा हो, इस भांति कारंडक, चक्रवाक और राजहंस पक्षियों को मानस-सरोवर की और जाने के लिए उत्सुक बनानेवाला वर्षाऋतु का समय हो । ऐसे वर्षाकाल में जो माताएँ स्नान करके, बलिकर्म करके, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त करके (वैभारगिरि के प्रदेशों में अपने पति से साथ विहार करती हैं, वै धन्य है ।)
वे माताएँ धन्य हैं जो पैरों में उत्तम नूपुर धारण करती हैं, कमर में करधनी पहनती हैं, वक्षस्थल पर हार पहनती हैं, हाथों में कड़े तथा उंगलियों में अगूठियाँ पहनती हैं, अपने बाहुओं को विचित्र और श्रेष्ठ बाजूबन्दों से स्तंभित करती हैं, जिनका अंग रत्नों से भूषित हो, जिन्होने ऐसा वस्त्र पहना हो जो नासिका के निश्वास की वायु से भी उड़ जाये अर्थात् अत्यन्त बारीक हो, नेत्रों को हरण करनेवाला हो, उत्तम वर्ण और स्पर्शवाला हो, घोड़े के मुख से निकलने वाले फेन से भी कोमल और हल्का हो, उज्जवल हो, जिसकी निकारियाँ सुवर्ण के तारों के बुनी गई हों, श्वेत होने के कारण जो आकाश एवं स्फटिक के समान शुभ्र कान्ति वाला हो और श्रेष्ठ हों । जिन माताऔं का मस्तक समस्त ऋतुओं संबंधी सुगंधी पुष्पों और फूसमालाओं से सुशोभित हो, जो कालागुरु आदि की उत्तम धूप से धूपित हों और जो लक्ष्मी के समान वेष वाली हों । इस प्रकार सजधज करके जो सेचनक नामक गंधहसती पर आरूढ़ होकर, कोरंट-पुष्पों की माला से सुशोभित छत्र को धारण करती हैं । चन्द्रप्रभा, वज्र और वैडूर्य रत्न के निर्मल दंडवाले एवं शंख, कुन्दपुष्प, जलकण और अमृत का मंथन करने से उत्पन्न हुए फेन के समूह के समान उज्जवल, श्वेत चार चामर जिनके ऊपर ढोरे जा रहे हैं, जो हस्ती-रत्न के स्कंध पर राजा श्रेणिक के साथ बैठी हों । उनके पीछे-पीछे चतुरंगिणी सेना चल रही हो, छत्र आदि राजचिह्नों रूप समस्त ऋद्धि के साथ, आभूषणों की कान्ति के साथ, यावत् वाद्यों के निर्घोष-शब्द के साथ, राजगृह नगर के श्रृंगाटक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ तथा सामान्य मार्द में गंधोदरक एक बार छिड़का हो, अनेक बार छिड़का हो, श्रृंगाटक आदि को शुचि किया हो, झाड़ा हो, गोबर आदि से लीपा हो, काले अगर, श्रेष्ठ कुंदरु, लोभान् तथा धूप को जलाने से फैली हुई सुगंध से मघमघा रहा हो, उत्तम चूर्ण के गंध से सुगंधित किया हो औरमानों गंधद्रव्यों की गुटिका ही हो, ऐसे राजगृह नगर को देखती जा रही हों । नागरिक जन अभिनन्दन कर रहे हों । गुच्छों, लताओं, वृक्षों, गुल्मों एवं वेलों के समूहों से व्याप्त, मनोहर वैभारपर्वत के निचले भागों के समीप, चारों और सर्वत्र भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ( वे माताएँ धन्य हैं । ) तो मैं भी इस प्रकार मेघों का उदय आदि होने पर अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूं।
[१९] तत्पश्चात् वह धारिणी देवी उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण, दोहद के सम्पन्न न होने के कारण, दोहद के सम्पूर्ण न होने के कारण, मेघ आदि का अनुभव न होने से दोहद सम्मानित न होने के कारण, मानसिक संताप द्वारा रक्त का शोषण हो जाने से शुष्क हो गई । भूख से व्याप्त हो गई । मांस रहित हो गई । जीर्ण एवं जीर्ण शरीखाली, स्नान का त्याग करने से मलीन शरीरवाली, भोजन त्याग देने से दुबरी तथा श्रान्त हो गई । उसने मुख और नयन रूपी कमल नीचे कर लिए, उसका मुख फीका पड़ गया । हथेलियों से असली हुई चम्पक-पुष्पों की माला के समान निस्तेज हो गई । उसक मुख दीन और विवर्ण हो गया, यथोचित पुष्प, गंध,माला, अलंकार और हार के विषय में रुचिरहित हो गई, अर्थात् उसने इन