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भगवती-१/-/१/२५
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किया है, वह जीव इस लोक से च्यव (मर) कर क्या परलोक में देव होता है ? गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता । भगवन् ! यहाँ से च्यव कर परलोक में कोई जीव देव होता है, और कोई जीव देव नहीं होता; इसका क्या कारण है ? गौतम ! जो ये जीव ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आश्रम, सन्निवेश आदि स्थानों में अकाम तृषा से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से, अकाम शीत, आतप, तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहने से अकाम अस्नान, पसीना, जल्ल, मैल तथा पंक से होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या बहुत सम यतक अपने आत्मा को क्लेशित करते हैं; वे अपने आत्मा को क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मर कर वाणव्यन्तर देवों के किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं ।
भगवन् उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! जैसे इस मनुष्यलोक में नित्य कुसुमित, मयूरित, लवकित, फूलों के गुच्छों वाला, लतासमूह वाला, पत्तों के गुच्छों वाला, यमल (समान श्रेणी के) वृक्षों वाला, युगलवृक्षों वाला, फल-फूल के भार से नमा हुआ, फल-फूल के भार से झुकने की प्रारम्भिक अवस्थावाला, विभिन्न प्रकार की बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करनेवाला अशोकवन, सप्तवर्ण वन, चम्पकवन, आम्रवन, तिलकवृक्षों का वन, तूम्बे की लताओं का वन, वटवृक्षों का वन, छत्रौधवन, अशनवृक्षों का वन, सन (पटसन) वृक्षों का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुम्बवृक्षों का वन, सफेद सरसों का वन, दुपहरिया वृक्षों का वन, इत्यादि वन शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित होता है; इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की तथा उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले एवं बहुत-से वाणव्यन्तरदेवों से और उनकी देवियों से आकीर्ण, व्याकीर्ण-एक दूसरे पर आच्छादित, परस्पर मिले हुए, स्फुट प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ़ श्री-शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित रहते हैं । हे गौतम ! उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक इसी प्रकार के हैं । इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि असंयत जीव मर कर यावत् कोई देव होता है और कोई देव नहीं होता ।
हे भगवन् ! 'यह इसी प्रकार है', 'यह इसी प्रकार है', ऐसा कह कर भगवान् गौतम श्रमण भगवन् महावीर को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं; वन्दना-नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं ।
| शतक-१ उद्देशक-२ [२६] राजगृह नगर में (भगवान् का) समवसरण हुआ । परिषद् निकली । यावत् (श्री गौतमस्वामी) इस प्रकार बोले
भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख (कर्म) को भोगता है ? गौतम ! किसी को भोगता है, किसी को नहीं भोगता । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! उदीर्ण दुःख-को भोगता है, अनुदीर्ण दुःख-कर्म को नहीं भोगता; इसीलिए कहा गया है कि किसी कर्म को भोगता है और किसी कर्म को नहीं भोगता ।
भगवन् ! क्या (बहुत-से) जीव स्वयंकृत दुःख भोगते हैं ? गौतम ! किसी कर्म (दुःख) को भोगते हैं, किसी को नहीं भोगते । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम !