Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 327
________________ २३७] एकोनविंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र उसी प्रकार संयम में समुत्थित भिक्षाजीवी साधु अनियतचारी होकर तथा मृगचर्या के सदृश आचरण करके ऊर्ध्व दिशा-मोक्ष की ओर गमन करता है ॥८३॥ In the same way indulged in restrainment the mendicant becoming unobstructed sage, roaming freely like a deer, goes to upper direction. i.e., attains abode of emacipateds. (83) जहा मिगे एग अणेगचारी, अणेगवासे धुवगोयरे य । एवं मुणी गोयरियं पविठे, नो हीलए नो विय खिंसएज्जा ॥१४॥ जिस प्रकार मृग अकेला अनेक स्थानों पर विचरण करता है और अनेक स्थानों पर निवास करता है उसी प्रकार गोचरी के लिए गृहस्थों के घर में प्रविष्ट हुआ मुनि न तो किसी की हीलना करता है और न ही किसी की निन्दा करता है ॥२४॥ As a deer roams and resides, and takes food and water from many places, in the same way the mendicant on his begging tour, entering in the houses of householders, neither insults nor speaks ill about any body. (84) मिगचारियं चरिस्सामि, एवं पुत्ता ! जहासुहं । अम्मापिऊहिं अणुनाओ, जहाइ उवहिं तओ ॥६५॥ मृगापुत्र ने कहा-माता-पिताजी ! मैं मृग के समान चर्या करूँगा। यह सुनकर माता-पिता ने कहा-पुत्र! जिसमें तुम्हें सुख हो, वैसा ही करो। इस तरह माता-पिता की आज्ञा प्राप्त करके मृगापुत्र उपधि का त्याग करता है ॥८॥ Mşgaputra said I will roam unrestricted like a deer practising sagehood. Hearing this parents told-Son ! Do as you like-you get happiness. Thus getting the permission of parents he abandons all his possessions. (85) मियचारियं चरिस्सामि, सव्वदुक्खविमोक्खणिं । तुब्भेहि अम्म ! ऽणुनाओ, गच्छ पुत्त ! जहासुहं ॥८६॥ (मृगापुत्र) माताजी ! आपकी आज्ञा पाकर मैं सभी दुःखों से मुक्त करने वाली मृगचर्या का आचरण करूंगा। इस पर माता ने कहा-हे पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा ही करो ॥८६॥ (Mrgaputra) Revered mother ! Getting your permission I will practise the deer-order of lifemeaning unrestricted practice of excellent monk-order, which is capable to rescue me from all the miseries of world. Mother said-Son ! Do the same by which you feel happiness. (86) एवं सो अम्मापियरो, अणुमाणित्ताण बहुविहं । ममत्तं छिन्दई ताहे, महानागो व्व कंचुयं ॥१७॥ माता-पिता को अनेक प्रकार से समझाकर मृगापुत्र उसी प्रकार ममत्व को छोड़ देता है जैसे महानाग अपनी केंचुल को छोड़ देता है ॥१७॥ Making understand parents by several ways Mrgāputra abandons all kind of affections (feelings of myness) as a snake casts off its slough. (87) Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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