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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एकत्रिंश अध्ययन [ ४०
एगतीसइमं अज्झयणं : चरणविही एकत्रिंश अध्ययन : चरण-विधि
चरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ॥१॥
जीव (प्राणियों) के लिए सुखकारी चरणविधि को मैं कहता हूँ, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार सागर को तर गये हैं ॥१ ॥
I describe the mode of conduct which bestowes happiness to souls (living beings) and practising it innumerable souls have crossed the wordly ocean. (1)
एगओ विरइं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥ २ ॥
(साधक) एक ओर से विरति (निवृत्ति) करे और एक ओर प्रवृत्ति करे; असंयम से निवृत्ति करे और संयम में प्रवृत्ति करे ॥ २ ॥
Adept should desist from one and practise the other; should desist from non-restrain and Practise restrain. (2)
रागद्दोसे
य दो पावे,
पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू रुम्भई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥३॥
पापकर्म में प्रवृत्त करने वाले राग और द्वेष हैं। जो भिक्षु इन दोनों को सदा- नित्य रोकता है-निरोध करता है वह मण्डल (जन्म-मरण रूप संसार) में नहीं रहता ॥ ३ ॥
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Attachment and detachment inspires the soul to do sinful deeds. The mendicant who always resists them does not remain in cycle of births and deaths, i.e., the world. (3)
दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं ।
जे भिक्खू चयई निच्चं, से न अच्छइ मण्डले ॥४॥
जो भिक्षु तीन प्रकार के दण्डों, तीन प्रकार के गौरवों और तीन प्रकार के शल्यों का सदा त्याग करता है, वह मण्डल (संसार) में नहीं रहता ॥४॥
The mendicant, who always renounces three types of soul punishment, prides and internal thorns, he does not remain in the world. (4)
दिव्वे य जे उवसग्गे, तहा तेरिच्छ - माणुसे । जे भिक्खू सहई निच्च, से न अच्छइ मण्डले ॥५ ॥
जो भिक्षु दिव्य ( देवकृत), मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत उपसर्गों को सदा समभाव से सहता है, वह मण्डल (संसार) में नहीं रहता ॥ ५ ॥
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