Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 534
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र full of water, not moistened by water, in the same way the indifferent person living in the world is not effected by pleasant and unpleasant sounds. (47) द्वात्रिंश अध्ययन [ ४३२ घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु | तं दोसउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥४८॥ घ्राण (घ्राणेन्द्रिय- नासिका) के ग्राह्य विषय को गंध कहा जाता है। राग के हेतु गन्ध को मनोज्ञ (सुगन्ध ) कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु बनती है वह अमनोज्ञ ( दुर्गन्ध) कहलाती है। जो गन्ध में सम रहता है, वह वीतराग है ॥ ४८ ॥ Nose is said as perceiver of smell. Fragrance is the cause of attachment and effluvium (bad smell) is the cause of detachment; but who remains equanimous in both the conditions, he is attachment-free or even-minded. ( 48 ) गन्धस्स घाणं गहणं वयन्ति, घाणस्स गन्धं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥४९॥ गन्ध को ग्रहण करने वाला प्राण है और प्राण का ग्राह्य विषय गन्ध कही जाती है। राग को उत्पन्न करने वाली - कारणभूत समनोज्ञ गन्ध है और द्वेष की कारणभूत अमनोज्ञ गन्ध है ॥४९॥ Nose (the sense of smell) is said the grasper of smell; and smell is the grasping object of nose.. Fragrance causes the attachment and effluvium is the cause of detachment. (49) गन्धेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगन्धगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमन्ते ॥५०॥ जो (मनोज्ञ) गन्ध में तीव्र रूप से आसक्त रहता है वह अकाल (असमय) में विनष्ट हो जाता है। जिस प्रकार औषधियों की गन्ध में गृद्ध राग से आतुर बना हुआ सर्प बिल से बाहर निकलते ही विनष्ट हो जाता है ॥५०॥ Who indulged deep in fragrance, by his own addiction he gets untimely ruin just as keenly afflicted by the fragrance of herbs, the serpent coming out of its hole soon ruined (caught or murdered). (50) Jain Education International जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुद्दन्तदोसेण सण जन्तू, न किंचि गन्धं अवरज्झई से ॥५१॥ जो अमनोज्ञ गन्ध में अत्यधिक तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दमनीय द्वेष के कारण दुःखी हो जाता है। इसमें गन्ध का कोई दोष नहीं है ॥ ५१ ॥ Who has keen detachment to effluvium he suffers at the same moment by his own sharp detachment. There is no fault of smell in it. (51) एगन्तरत्ते रुइरंसि गन्धे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ५२ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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