Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 584
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र पंचस्त्रिश अध्ययन [४७८ पणतीसइमं अज्झयणं : अणगारमग्गगई पंचत्रिंश अध्ययन : अनगार-मार्ग-गति सुणेह मेगग्गमणा, मग्गं बुद्धेहि देसियं । जमायरन्तो भिक्खू, दुक्खाणऽन्तकरो भवे ॥१॥ मन (चित्त) को एकाग्र करके, बुद्धों (तीर्थकरों) द्वारा उपदिष्ट मार्ग को मुझसे सुनो; जिसका आचरण करने वाला भिक्षु दुःखों का अन्त करने वाला होता है ॥१॥ Hear from me the path precepted by wise (tirthamkaras) with concentrated mind, practising which path, the mendicant puts an end to his all miseries. (1) (१) प्रथम सूत्र : सर्वसंग परित्याग गिहवासं परिच्चज्ज, पवज्जंअस्सिओ मुणी । इमे संगे वियाणिज्जा, जेहिं सज्जन्ति माणवा ॥२॥ गृहवास का परित्याग करके प्रव्रज्या के आश्रित हुआ (मुनि धर्म स्वीकार किया हुआ) मुनि इन संगों को भली प्रकार जान ले, जिनमें मानव आसक्त होते हैं ॥२॥ Giving up the life living in a home and becoming consecrated, a mendicant know very well the connections, in which the men indulge. (2) (२) द्वितीय सूत्र : पापासवों का सम्पूर्ण त्याग । तहेव हिंसं अलियं, चोज्जं अबम्भसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए ॥३॥ इसी तरह संयमी साधक हिंसा, अलीक-असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य का सेवन-मैथुन, इच्छाकाम (अप्राप्त वस्तु की इच्छा) और लोभ (प्राप्त वस्तु के प्रति ममता-गृद्धि) का परित्याग करे ॥३॥ A restrained sage abandon the violence, untruth, stealing, carnal intercourse, desire of unobtained thing and greed-indulgement to obtained thing. (3) (३) तृतीय सूत्र : स्थान-विवेक मणोहरं चित्तहरं, मल्लधूवेण वासियं । सकवाडं पण्डुरुल्लोयं, मणसा वि न पत्थए ॥४॥ मनोहर (चित्त को आकर्षित करने वाला), चित्रघर (स्त्रियों के चित्रों से युक्त घर-मकान), पुष्पमालाओं और धूप आदि सुगन्धित वस्तुओं से वासित, कपाट (किवाड़ों) से युक्त, सफेद चंदोवा (पर्दे आदि से सुसज्जित) गृह की मन से भी प्रार्थना-आकांक्षा न करे ॥४॥ A sage, even in his mind, should not long for the lodge heart-attracting and adored with the pictures of women, fragrant with garlands and frankincense, secured by door-leaf and decorated with a white ceiling cloth and curtains. (4) Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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