Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 647
________________ ५४१] षट्त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र खाली पोले अंश) से रहित आत्म प्रदेशों के सघन हो जाने से वह घटकर त्रिभागहीन अर्थात् तीन सौ तेतीस धनुष बत्तीस अंगुल रह जाती है। और सबसे कम जघन्य (दो हाथ वाले आत्माओं की) एक हाथ आठ अंगुल प्रमाण होती है। गाथा ७२-प्रस्तुत सूत्र में खर पृथ्वी के ३६ भेद बताए हैं, जबकि प्रज्ञापना में ४० गिनाए हैं। इतने ही क्यों, यह तो स्थूल रूप से प्रमुखता की अपेक्षा से गणना हैं। वैसे असंख्य भेद हैं। ___ आगमकार ने ३६ भेदों की प्रतिज्ञा की है, जबकि मणि के प्रकारों में चार भेद गणना से अधिक हैं। वृत्तिकार ने इनका उपभेद के रूप में अन्तर्भाव दूसरों में बताया है। पर, किस में किस का अन्तर्भाव है, यह सूचित नहीं किया है। गाथा ९३-साधारण का अर्थ समान है। जिन अनन्त जीवों का समान-एक ही शरीर होता है, वे साधारण कहलाते हैं। शरीर का एकत्व उपलक्षण है। अतः उनका आहार और श्वासोच्छ्वास भी समान अर्थात् एक ही होता है। 'उपलक्षणं चैत आहारानपानयोरपि साधारणत्यात्-सर्वार्थसिद्धि। . प्रत्येक वे कहलाते हैं, जिन का शरीर अपना-अपना भिन्न होता है। जो एक का शरीर है, वह दूसरों का नहीं होता। प्रत्येक वनस्पति जीवों की उत्कृष्ट दश हजार वर्ष की आयु होती है, जघन्य अन्तर्मुहूर्त। साधारण जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की ही आयु है। गाथा १०४-पनक का अर्थ सेवाल अर्थात् जल पर की काई है। परन्तु यहाँ कायस्थिति के वर्णन में पनक समग्र वनस्पति काय का वाचक है। सामान्य रूप से वनस्पति जीवों की उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल बताई है, जो प्रत्येक और साधारण दोनों की मिलकर है। अलग-अलग विशेष की अपेक्षा से तो प्रत्येक वनस्पति, बादर निगोद और सक्ष्म निगोद जीवों की असंख्य काल की कायस्थिति है। प्रत्येक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ७० कोटि-कोटि सागरोपम है। निगोद की समुच्चय कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल है। बादर निगोद की उत्कृष्ट ७० कोटि-कोटि है, और सूक्ष्म निगोद की असंख्यात काल। जघन्य स्थिति दोनों की अन्तर्मुहूर्त है। गाया १०७-तेजस्, वायु और उदार त्रस-ये त्रस के तीन भेद हैं। तेजस् और वायु एकेन्द्रिय हैं, अतः अन्यत्र इनकी गणना पांच स्थावरों में की गई है। यह पक्ष सैद्धान्तिक है। स्थावरनाम कर्म का उदय होने से ये निश्चय से स्थावर हैं, उस नहीं। केवल एक देश से दूसरे देश में त्रसन अर्थात् संक्रमणक्रिया होने से तेजस् और वायु की त्रस में गणना की गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि त्रस के उदार और अनुदार भेद करने पड़े। आगे चलकर तेजस् और वायु को 'गतित्रस' और द्वीन्द्रिय आदि को त्रसनाम कर्म के उदय के कारण 'लब्धि त्रस' कहा गया। स्थानांग सूत्र (३/२/१६४) में उक्त तीनों को त्रस संज्ञा दी है। श्वेताम्बरसम्मत तत्त्वार्थ सूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख है। आचारांग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध सर्वाधिक प्राचीन आगम माना जाता है। उसमें यह जीव निकाय का क्रम एक भिन्न ही प्रकार का है-पृथ्वी, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु। गाथा १६९-नरक से निकल कर पुनः नरक में ही उत्पन्न होने का जघन्य व्यवधानकाल अन्तर्मुहूर्त का बताया है, उसका अभिप्राय यह है कि नारक जीव नरक से निकल कर संख्यातवर्षायुष्क गर्भज तिर्यंच और मनुष्य में ही जन्म लेता है। वहाँ से अति क्लिष्ट अध्यवसाय वाला कोई जीव अन्तर्मुहूर्त परिमाण जघन्य आयु भोग कर पुनः नरक में ही उत्पन्न हो सकता है। गाथा १७०-अतिशय मूढ़ता को संमूर्छा कहते हैं। संमूर्छा वाला प्राणी संमूर्छिम कहलाता है। गर्भ से उत्पन्न न होने वाले तिर्यंच तथा मनुष्य मनःपर्याप्ति के अभाव से सदैव अत्यन्त मूर्छित जैसी मूढ स्थिति में रहते हैं। 'गर्भ व्युत्क्रान्तिक' शब्द में व्युत्क्रान्तिक का अर्थ उत्पत्ति है। गाथा १८०-स्थलचर चतुष्पदों में एकखुर अश्व आदि हैं, जिनका खुर एक है, अखण्ड है, फटा नहीं है। द्विखर गाय आदि हैं, जिनके खुर फटे हुए होने से दो अंशों में विभक्त हैं। गण्डी अर्थात् कमलकर्णिका के समान जिनके पैर वृत्ताकार गोल हैं, वे हाथी आदि गण्डी पद हैं। नखसहित पैर वाले सिंह आदि सनख पद हैं। ___ गाथा १८१-भुजाओं से परिसर्पण (गति) करने वाले नकुल, मूषक आदि मुज परिसर्प हैं। तथा उर (वक्ष, छाती) से परिसर्पण करने वाले सर्प आदि उर-परिसप हैं। गाथा १८५-स्थलचरों की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व तीन पल्योपम की बताई हैं, उसका अभिप्राय यह है कि पल्योपम आयु वाले तो मरकर पुनः वहीं पल्योपम की स्थिति वाले स्थलचर होते नहीं हैं। मरकर देवलोक में जाते हैं। पूर्व कोटि आयु वाले अवश्य इतनी ही स्थिति वाले के रूप में पुनः उत्पन्न हो सकते हैं। वे भी सात आठ भव से अधिक नहीं। अतः पूर्वकोटि आयु के पृथक्त्व भव ग्रहण कर अन्त में पल्योपम आयु पाने वाले जीवों की अपेक्षा से यह उत्कृष्ट कायस्थिति बताई है। गाथा १८८-चर्म की पंखों वाले चमगादड़ आदि चर्म पक्षी हैं। और रोम की पंखों वाले हंस आदि रोम पक्षी हैं। समुद्ग अर्थात् डिब्बा के समान सदैव बन्द पंखों वाले समुद्ग पक्षी होते हैं। सदैव फैली हुई पंखों वाले विततपक्षी कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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