Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 640
________________ त सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र षट्त्रिंश अध्ययन [५३४ Longest age duration of the gods of ninth Graiveyaka is of thirtyone sägaropamas and shortest is of thirty sagaropamas. (242) तेत्तीस सागरा उ, उक्कोसेण ठिई भवे । चउसुं पि विजयाईसुं, जहन्नेणेक्कतीसई ॥२४३॥ विजय आदि चार अनुत्तर विमान विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित वासी देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तेतीस सागरोपम की और जघन्य आयु स्थिति इकत्तीस सागरोपम की होती है ॥२४३।। Longest age duration of the gods of four Anuttara vimănas Vijaya, Vaijayanta, Jayanta and Aparajita is of thirtythree sägaropamas and shortest is of thirtyone sägaropamas. (243) अजहन्नमणुक्कोसा, तेत्तीसं सागरोवमा । महाविमाण-सव्वढे, ठिई एसा वियाहिया ॥२४४॥ सर्वार्थसिद्ध महाविमानवासी देवों की न जघन्य और न उत्कृष्ट-एक जैसी आयुस्थिति तेतीस सागर की होती है ॥२४४॥ The age duration of the gods of Sarvārthasiddha great vimāna is of thirtythree sāgaropamas, because there is no difference of longest and shortest age duration. (244) जा चेव उ आउठिई, देवाणं तु वियाहिया । सा तेसिं कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे ॥२४५॥ देवों की (उपर्युक्त गाथाओं में) जो आयुस्थिति बताई गई है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति होती है ॥२४५।। The age duration (both longest and shortest) which is described in aforesaid couplets the same is the longest and shortest body duration of all the gods. (245) अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजमि सए काए, देवाणं हुज्ज अन्तरं ॥२४६॥ देवों का अपने देव शरीर को छोड़कर पुनः देव शरीर प्राप्त करने में जो काल का व्यवधान-अन्तर होता है वह उत्कृष्टरूप से अनन्तकाल का तथा जघन्य रूप से अन्तर्मुहूर्त का है ॥२४६॥ The interval (quitting god-body, transmigrating in other existences and again attaining god-body-in betweeen time) is maximumly of infinite time and minimumly of antarhumurta. (246) - एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ । __ संठाणादेसओ वा वि, विहाणाई सहस्सओ ॥२४७॥ इन सभी देवों के-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से हजारों प्रकार हो जाते हैं ॥२४७।। There becomes thousands of kinds of all these gods, with regard to colour, smell, taste, touch and form. (247)) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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