Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 644
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र बहुआगमविन्नाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही । एएण कारणेणं, अरिहा आलोयणं सोउं ॥२६२॥ जो बहुत से आगमों के ज्ञाता (बहुश्रुत), समाधि (हृदय में सुख-शांति) उत्पन्न करने वाले तथा गुणग्राही होते हैं, वे अपने इन्हीं गुणों के कारण आलोचना सुनने के योग्य होते हैं ॥२६२॥ Those who are well-versed in holy texts, learneds, awaken piety in the hearts of others and appreciate their good qualities, by their these qualities they are worthy to listen the confession. (262) कन्दर्पी आदि अशुभ भावनाओं का स्वरूप षट्त्रिंश अध्ययन [ ५३८ कन्दप्प - कोक्कुयाई तह, सील-सहाव-हास - विगहाहिं । विम्हावेन्तो य परं, कन्दप्पं भावणं कुणइ ॥ २६३ ॥ जो कन्दर्प- कामवर्द्धक चर्चा-वार्ता, कौत्कुच्य - हास्य उत्पन्न करने वाली कुचेष्टाएँ, अपने आचरण-स्वभाव-हास्य और विकथाओं से दूसरों को विस्मित करता है - वह कान्दर्पी भावना करता है ॥२६३॥ Who by ribaldry and buffoonery, by his comical habits and appearances, by jests and words amuses other persons, he realises kändarpi feeling. (263) मन्ता- जोगं काउं, भूईकम्मं च जे पउंजन्ति । साय-रस- इड्ढिहेउं, अभिओगं भावणं कुणइ ॥ २६४॥ जो (साधक) साता (मन एवं पंचेन्द्रिय विषय संबंधी सुख-सुविधा ) रस ( स्वादिष्ट रस) और ऋद्धि (समृद्धि, सिद्धि, प्रसिद्धि) के लिए मंत्र, योग (तंत्र - कुछ विशेष पदार्थों के मिलाकर किया जाने वाला) और भूतिकर्म (मंत्रित करके भस्म देना) का प्रयोग करता है, वह आभियोगिकी भावना का आचरण करता है || २६४॥ The practiser, who for getting the pleasures of mind and sensual comforts, delicious tastes, fortunes, wealth and fame practises mantra and yoga-tantra (performed by the mixture of many ingredients) and giving ashes activated by various mantras, realises the feeling of ābhiyogiki. (264) Jain Education International नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियस्स संघ- साहूणं । माई अवण्णवाई, किब्बिसियं भावणं कुणइ ॥ २६५॥ जो ज्ञान का, केवलज्ञानियों का, धर्माचार्यों का, संघ और साधुओं का अवर्णवाद (जो दोष उनमें नहीं . हैं, उनका प्रक्षेप करके निन्दा करना) करता है, वह मायावी - कपटी किल्विषिकी भावना करता है || २६५॥ Who speaks ill and accuses with the faults which are not in them about the knowledge, omniscients, preceptors of religion, union or group of religious persons and sages, such deceitful person practises kilvişiki feeling. (265) अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवी । एएहि कारणेहिं, आसुरियं भावणं कुणइ ॥ २६६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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