Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 608
________________ तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र षट्त्रिंश अध्ययन [५०२ संतइं पप्पऽणाईया, अपज्जवसिया वि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥७९॥ संतति-प्रवाह की अपेक्षा पृथ्वीकायिक जीव अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा सादि-सान्त भी हैं ॥७९॥ With regard to continuous flow these earth-bodied beings are beginningless and endless but with regard to individual life duration these are with beginning and with an end too. (79) बावीससहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे । आउठिई पुढवीणं, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥८॥ पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति बाईस हजार वर्ष है और जघन्य आयु स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है ||८०॥ The longest duration of earth-bodied beings is twentytwo thousand years and shortest duration is of antarmuhurta (less then fortyeight minutes.) (80) असंखकालमुक्कोस, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । कायठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥८१॥ पृथ्वीकायिक जीव, यदि पृथ्वीकाय को न छोड़कर उसी में जन्म-मरण करते रहें तो इस अपेक्षा से उनके उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात काल की होती है तथा जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है ॥८॥ Earth-bodied beings, without leaving their body, if they take births and deaths in the same body then their longest body-duration is of innumerable time and shortest body. duration is of antarmuhurta. (81) अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए, पुढवीजीवाण अन्तरं ॥२॥ अपने काय (पृथ्वीकाय) को एक बार छोड़कर (दूसरे अन्य कायों में उत्पन्न होने-जन्म-मरण करने वे पश्चात) पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने का अन्तर (अन्य कायों में बिताया हुआ काल-मध्यवर्ती अन्तराल उत्कृष्ट अनन्त काल और जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है ॥१२॥ The interval (leaving their body, moving out and again taking birth in the same body-ii between time, which the soul takes, that is called interval) of earth-bodied beings maximumly is of infinite time and minimum of antarmuhūrta. (82) एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वा वि, विहाणाई सहस्ससो ॥३॥ ये पृथ्वीकायिक जीव वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा संस्थान के आदेश (अपेक्षा) से भी हजारों प्रका के होते हैं ॥३॥ These earth-bodied beings are also of thousands of kinds with reagard to colour, smell taste, touch and frame-form. (83) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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