Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 622
________________ त सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र षट्त्रिंश अध्ययन [५१६ इत्यादि चतुरिन्द्रिय त्रसकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं। ये सभी लोक के एक देश (अंश या भाग) में हैं; समस्त लोक में नहीं हैं ॥१४९॥ Thus, there are several kinds of four-sensed movable beings. These all are in one part of the universe, not in whole. (149) संतई पप्पऽणाईया, अपज्जवसिया वि य । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥१५०॥ संतति-प्रवाह की अपेक्षा से (सभी चतुरिन्द्रिय जीव) अनादि और अनन्त हैं तथा स्थिति की अपेक्षा सादि सान्त भी हैं ||१५०॥ Regarding continuity all these four-sensed mobile beings are beginningless and endless but due to individual age duration these have beginning and end too. (150) छच्चेव य मासा उ, उक्कोसेण वियाहिया । चउरिन्दियआउठिई, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ॥१५१॥ चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति छह मास (महीने) की और जघन्य आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही गई है ॥१५१॥ The longest age duration of four sensed movable beings is of six months and shortest is of antarmuhurta. (151) संखिज्जकालमुक्कोस, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । चउरिन्दियकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ ॥१५२॥ उस अपनी चतरिन्द्रिय काय को न छोडकर (उसी में बार-बार जन्म-मरण करने का काल) कायस्थिति उत्कृष्टतः संख्यात काल की और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की कही गई है ||१५२॥ The longest body duration of four-sensed mobile being (by continuous births and deaths in the same body) is of numerable time and shortest is of antarmuhurta. (152) अणन्तकालमुक्कोस, अन्तोमुहत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए, अन्तरेयं वियाहियं ॥१५३॥ अपनी चतुरिन्द्रिय काय को छोड़कर अन्य योनियों में भ्रमण करने के बाद पुनः चतुरिन्द्रिय में जन्म ग्रहण करने तक का काल-अन्तर उत्कृष्ट रूप से अनन्तकाल का तथा जघन्य रूप से अन्तर्मुहूर्त काल का है ॥१५३॥ The interval period (quitting four-sensed body and moving elsewhere, again taking birth in four-sensed body, in between time) is maximumly of infinite time and minimumly of antarmuhurta. (153) एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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