Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 625
________________ ५१९] षट्त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र बावीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । छट्ठीए जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥१६५॥ छठी तमा या तमःप्रभा नरक पृथिवी के नैरयिकों-नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति बाईस (२२) सागरोपम की और जघन्य आयुस्थिति सत्रह सागरोपम की कही गई है ॥१६॥ Longest age duration of the hellish souls of sixth hell, named Tamā or Tamhprabhâ, is of twentytwo sāgaropamas and shortest is of seventeen sāgaropamas. (165) तेत्तीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥१६६॥ सातवीं तमतमा या तमस्तमा नरक पृथिवी के नैरयिकों-नारकी जीवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तेतीस (३३) सागरोपम की और जघन्य आयुस्थिति बाईस (२२) सागरोपम की कही गई है ॥१६६॥ Longest age duration of the hellish souls of seventh hell, named Tamatamā or Tamastamā, is of thirtythree sägaropamas and shortest age duration is of twentytwo sāgaroparmas. (166) जा चेव उ आउठिई, नेरइयाणं वियाहिया। सा तेसिं कायठिई, जहन्नुक्कोसिया भवे ॥१६७॥ नैरयिक-नारकी जीवों की जो (जघन्य और उत्कृष्ट) आयुस्थिति बताई गई है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति होती है ॥१६७॥ As much the age duration of hellish souls is described so much is their body duration. (167) अणन्तकालमुक्कोस, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढमि सए काए, नेरइयाणं तु अन्तरं ॥१६८॥ स्वकाय-नैरयिक शरीर के छोड़ने के बाद पुनः नैरयिक शरीर प्राप्त करने का अन्तराल-अन्तर उत्कृष्ट रूप से अनन्त काल का और जघन्य रूप से अन्तर्मुहूर्त काल का होता है ॥१६८|| Quitting once hellish body-hell and again taking birth in hellish body-hell, in between time-interval maximumly of infinite time and minimumly is of antarmuhurta. (168) एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥१६९॥ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इन नैरयिक जीवों के हजारों प्रकार हो जाते हैं ॥१६९॥ There becomes thousands of types of hellish souls due to colour, smell, taste, touch and form. (169) तिर्यंच पंचेन्द्रिय त्रसकायिक जीवों की प्ररूपणा पंचिन्दियतिरिक्खाओ, दुविहा ते वियाहिया । सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ, गब्भवक्कन्तिया तहा ॥१७॥ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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