Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 617
________________ ५११] षट्त्रिंश अध्ययन जहन्नयं । असंखकालमुक्कसं, अन्तोमुहुत्तं कायट्टिई वाऊणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १२३॥ उस वायुकाय को न छोड़कर उसी में जन्म मरण करते रहने पर वायुकायिक जीवों की कायस्थिति उत्कृष्टतः असंख्यात काल की और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की होती है ॥ १२३ ॥ The maximum body-duration (with continuous births and deaths in the same body) is of innumerable time and minimum is of antarmuhūrta (123) सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र 'अणन्तकालमुक्कोसं, अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजमि सए काए, वाउजीवाण अन्तरं ॥ १२४॥ स्वकाय छोड़कर निकलने के बाद ( अन्य कायों में परिभ्रमण के बाद पुनः वायुकाय में उत्पन्न होने तक का अन्तराल) अन्तर उत्कृष्टतः अनन्त काल तथा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त होता है || १२४ || The longest interval of air-bodied beings is of infinite time and shortest is of antarmuhūrta. (124) एएसिं वण्णओ चेव, गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१२५॥ इन वायुकायिक जीवों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से हजारों प्रकार होते हैं ॥ १२५ ॥ There are thousands of kinds of these air-bodied beings regarding colour, smell, taste, touch and form. (125) उदार त्रस काय की प्ररूपणा ओराला तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिया । बेइन्दिय - तेइन्दिय-, चउरो- पंचिन्दिया चेव ॥ १२६॥ जो उदार (उराला) त्रस हैं, वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा - (१) द्वीन्द्रिय (२) त्रीन्द्रिय (३) चतुरिन्द्रिय और (४) पंचिन्द्रिय ॥ १२६ ॥ Movable beings with organic (urala ) body are said of four types - ( 1 ) two-sensed (2) three-sensed (3) four-sensed (4) five-sensed, beings. (126) द्वीन्द्रिय त्रस जीवों की प्ररूपणा बेइन्दिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १२७॥ जो द्वीन्द्रिय जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं- (१) पर्याप्त और (२) अपर्याप्त। उन द्वीन्द्रिय जीवों के भेदों को मुझसे सुनो || १२७|| Two sensed mobile beings are of two kinds-(1) fully developed (2) undeveloped. The divisions of these listen fron me. (127) Jain Education International किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माइवाहया । वासीमुहाय सिप्पीया, संखा संखणगा तहा ॥१२८॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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