Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 587
________________ ४८१] पंचस्त्रिश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र , Seller and buyer of a thing is a merchant. The mendicant indulged in buying and selling is not a mendicant. (14) भिक्खियव्वं न केयव्वं, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा । कयविक्कओ महादोसो, भिक्खावत्ती सुहावहा ॥१५॥ भिक्षु को भिक्षावृत्ति से भिक्षा करनी चाहिए। क्रय (विक्रय) नहीं करना चाहिए ; क्योंकि क्रय-विक्रय महादोष है और भिक्षावृत्ति सुखावह (सुखदायी) है ॥१५॥ Mendicant should beg alms. He should not purchase or sale anything; because purchasing and selling is a great defect; but to live on alms leads to happiness. (15) समुयाणं उंछमेसिज्जा, जहासुत्तमणिन्दियं । लाभालाभम्मि संतुट्टे, पिण्डवायं चरे मुणी ॥१६॥ मुनि सूत्र (में बताई गई) विधि से अनिन्दित सामुदायिक अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा की एषणा (खोज) करे और लाभ-अलाभ में सन्तुष्ट रहकर भिक्षा के लिए पर्यटन (पिण्डपात) करे ॥१६॥ Mendicant should collect alms taking in small quantity from many houses, in the method as described in scriptures and should wander for seeking alms being contented, whether gets or not. (16) (७) सातवाँ सूत्र : स्वाद-वृत्ति निषेध अलोले न रसे गिद्धे, जिब्भादन्ते अमुच्छिए । न रसट्ठाए @जिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी ॥१७॥ अलोलुपी, रस (स्वाद) में अगृद्ध (आसक्त न होने वाला) जिह्वा (रसना) इन्द्रिय का दमन करने वाला (स्वाद में) मूर्छित-ममत्व, लालसा न रखने वाला महामुनि रस (स्वाद) के लिए न खाये, संयम यात्रा के निर्वाह हेतु भोजन करे ॥१७॥ A great mendicant should eat food for sustenance of life and not for pleasant taste. He should not be dainty nor eager for good taste, but should control his tongue and cupidity. (17) (८) आठवाँ सूत्र : पूजा-प्रतिष्ठा का निषेध अच्चणं रयणं चेव, वन्दणं पूयणं तहा । इड्डीसक्कार-सम्माणं, मणसा वि न पत्थए ॥१८॥ अर्चना, रचना और वन्दना, पूजा, तथा ऋद्धि, सत्कार, सम्मान आदि की मुनि मन से भी इच्छा न करे ॥१८॥ The mendicant should not desire worship, bow, respect, exalt, good treatment and welcome, even by mind. (18) (९) नौयाँ सूत्र : जीवन पर्यन्त मुनि धर्म पालन सुक्कज्झाणं झियाएज्जा, अणियाणे अकिंचणे | वोसठ्ठकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पज्जओ ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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