Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 559
________________ ४५५] त्रयस्त्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र इसलिए इन कर्मों के अनुभागों को जानकर बुद्धिमान - तत्त्वज्ञानी साधक इन कर्मों के संवर और क्षय करने में प्रयासरत बने ॥२५॥ - ऐसा मैं कहता हूँ । Therefore knowing all these karmas and their fruitions-consequences, wise adept should exert himself to stop and destruct them. (25) - Such I speak. विशेष स्पष्टीकरण गाथा ३ समास का अर्थ संक्षेप है। संक्षेप में आठ कर्म हैं, इसका अभिप्राय है कि वैसे तो जितने प्राणी हैं, उतने ही कर्म हैं, अर्थात् कर्म अनन्त हैं यहाँ विशेष स्वरूप की विवक्षा से आठ भेद हैं। गाथा ६ - सहज रूप में आने वाली निद्रा है। गहरी और कठिनाई से टूटने वाली निद्रा-निद्रा है। बैठे-बैठे सो जाना प्रचला निद्रा है। चलते हुए भी सो जाना प्रचलाप्रचला निद्रा है। सत्यानद्धि का अर्थ है जिसमें सबसे अधिक ऋद्धि अर्थात् गृद्धि का स्त्यान है, उपचय है, वह निद्रा इसमें वासुदेव का आधा बल आ जाता है, प्रबल राग-द्वेष वाला प्राणी इस निद्रा में बड़े-बड़े असंभव जैसे कार्य कर लेता है और उसे भान ही नहीं होता कि मैंने क्या किया है? गाथा ९ सम्यक्यमोहनीय कर्म शुद्धदलिकरूप है, अतः उसके उदय में भी तत्वरुचिरूप सम्यक्त्व हो जाता है। पर, उसमें शंका आदि अतिचारों की मलिनता बनी रहती है। मिथ्यात्व अशुद्धदलिकरूप है, उसके कारण तत्व में अतत्व रूचि और अंतस्थ में तत्व रूचि होती है। सम्यगुमिध्यात्व के दलिक शुद्धाशुद्ध अर्थात् मिश्र हैं। गाथा 90 " नोकषाय" में प्रयुक्त "नो" का अर्थ "सदृश" है जो कषाय के समान है, कषाय के सहवर्ती हैं, दे हास्य आदि नोकपाय हैं। ११ एक बार उपयोग में आने वाले जल आहार आदि भोग हैं बार-बार उपयोग में आने वाले वस्त्र, अलंकार, मकान आदि उपभोग हैं। दान देने वाला भी है, देव वस्तु भी है, दान के फल को भी जानता है, फिर भी दान में प्रवृत्ति न होना, दानान्तराय है। उदार दाता के होने पर भी याचना निपुण याचक कुछ भी न पा सके, यह लाभान्तराय है। धन वैभव और अन्य वस्तु के होने पर भी तिनका तोड़ने जैसी भी क्षमता-शक्ति का न होना वीर्यान्तराय है। इनके जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट आदि अनेक भेद हैं। " गाथा १७ एक समय में बंधने वाले कर्मों का प्रदेशाग्र (कर्मपुद्गलों के परमाणुओं का परिमाण) अनन्त है। अर्थात् आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर एक समय में अनन्तानन्त परमाणुओं से निष्पन्न कर्मवर्गणायें शिलष्ट होती हैं। ये अनन्त कर्मवर्गणायें अनन्तसंख्यक अभव्य जीवों से अनन्तगुणा अधिक और अनन्तसंख्यक सिद्धों के अनन्तदे भाग होती हैं। अर्थात् एक समय में बद्ध अनन्त कर्म वर्गणाओं से सिद्ध अनन्तगुणा अधिक हैं। ग्रन्थिकत्व का अर्थ है अभव्य जीव अभव्यों की राग-द्वेषरूप ग्रन्थि अभेद्य होती है, अतः उन्हें ग्रन्थिक अथवा ग्रन्थिक सत्य (जीव ) कहा है। गाथा १८ पूर्व आदि चार और ऊर्ध्व एवं अधः ये छह दिशायें हैं जिस आकाश क्षेत्र में जीव अवगाढ़ है, रह रहा है सी के कर्मपुद्गल रागादि भावरूप स्नेह के योग से आत्मा में बद्ध हो जाते हैं। मित्र क्षेत्र में रहे हुए कर्म पुद्गल यहाँ से आकर आत्मा को नहीं लगते। ईशान आदि विदिशाओं के भी कर्मपुद्गल बंधते हैं पर विदिशायें दिशाओं में गृहीत हो जाने से यहाँ अविवक्षित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.netbrary.org

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