Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

View full book text
Previous | Next

Page 580
________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र गाथा ३४ - मुहूर्तार्ध शब्द से एक समय से ऊपर और पूर्ण मुहूर्त से नीचे के सभी छोटे-बड़े अंश विवक्षित हैं। इस दृष्टि से मुहूर्तार्थ का अर्थ अन्तर्मुहूर्त है। चतुस्त्रिंश अध्ययन [ ४७४ गाथा ३८ यहाँ पद्म लेश्या की एक मुहूर्त अधिक दस सागर की स्थिति जो बताई है, उसमें मुहूर्त से पूर्व एवं उत्तर भव से सम्बन्धित दो अन्तर्मुहूर्त विवक्षित हैं। नील लेश्या आदि के स्थिति वर्णन में जो पल्योपम का असंख्येय भाग बताया है उसमें भी पूर्वोत्तर भव सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्तद्वय प्रक्षिप्त हैं। फिर भी सामान्यतः असंख्येय भाग कहने से कोई हानि नहीं है। क्योंकि असंख्येय के भी असंख्येय भेद होते हैं। गाथा ४५-४६ तिर्यंच और मनुष्यों में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही रूप से लेश्याओं की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। यह भाव लेश्या की दृष्टि से कथन है। छद्मस्थ व्यक्ति के भाव अन्तर्मुहूर्त से अधिक एक स्थिति में नहीं रहते। परन्तु यहाँ केवला अर्थात् शुद्ध शुक्ल लेश्या को छोड़ दिया है। क्योंकि सयोगी केवली की उत्कृष्ट केवला पर्याय नौ वर्ष कम पूर्वकोटि है और सयोगकेवली को एक जैसे अवस्थित भाव होने से उनकी शुक्ल लेश्या की स्थिति भी नववर्षन्यून पूर्वकोटि की है। गाया ५२ - मूल पाठ में गाथाओं का व्यत्यय जान पड़ता है। ५२ के स्थान पर ५३वीं और ५३ के स्थान ५२वीं गाथा होनी चाहिये। क्योंकि ५१वीं गाथा में आगमकार ने भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक सभी देवों की तेजोलेश्या के कथन की प्रतिज्ञा की है किन्तु ५२वीं गाथा में केवल वैमानिक देवों की ही तेजोलेश्या निरूपित की है। जब कि ५३वीं गाथा में प्रतिपादित लेश्या का कथन चारों ही प्रकार के देवों की अपेक्षा से है। टीकाकारों ने भी इस विसंगति का उल्लेख किया है। गाथा ५८-५९ प्रतिपत्तिकाल की अपेक्षा से छहों ही लेश्याओं के प्रथम समय में जीव का परभव में जन्म नहीं होता है और न अन्तिम समय में ही लेश्या की प्राप्ति के बाद अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त ही शेष रहने पर जीव परलोक में जन्म लेते हैं। भाव यह है कि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्ति काल में अतीत भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल तक होना आवश्यक है। देवलोक और नरक में उत्पन्न होने वाले मनुष्य और तिर्यंचों को मृत्युकाल में अन्तर्मुहूर्त काल तक अग्रिम भव की लेश्या का सद्भाव होता है। मनुष्य और तिर्यच गति में उत्पन्न होने वाले देव व नारकों को भी मरणानन्तर अपने पहले भव की लेश्या अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है। अतएव आगम में देव और नारकों की लेश्या का पहले और पिछले भव के लेश्या सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्त के साथ स्थितिकाल बताया गया है। प्रज्ञापना सूत्र में कहा है-"जल्लेसाई दव्बाई आयइता काल करेई तल्लेसेसु उबवन्जइ । " . (सन्दर्भ : उत्तराध्ययन सूत्र - साध्वी श्री चन्दनाजी ) Salient Elucidations Gatha 1-The purport of word karma-lesya is the thoughts of attachment etc., which are the causes of karma-bondage. The tinges (leśyas) are of two types-thought tinges and bodily or substance tinges. Some preceptors opine that the activities tinted by passions are tinges. By this point of view the tinges can exist in the man who is bound by vitious karmas. But white tinge exists in kevalin too, who is at the thirteenth stage of soul purification and omniscient. Only who has ceased the activities of yogas, he is devoid of all types of tinges. Therefore only the activities of yogas are tinges. The passions enjoin them intensity etc. Jinadasa Mahattara said in Avafyaka Curţi Lesyābhirātmani karmāņi saṁilisyante. Yoga pariņāma leśyä. Jamhā akevali alesso. Gāthā 11-Trikatuka is the aggregate of black round and long pepper and dried ginger. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652