Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 544
________________ an सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र द्वात्रिंश अध्ययन [४४० Overwhelmed, stealer dissatisfied by pleasant touches and seizing them and by blemish of greed, his deceit and falsehood go on increasing. But practising deceit and falsehood he cannot put an end to his pains. (82) मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरन्ते । __ एवं अदत्ताणि समाययन्तो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ||८३॥ मिथ्या बोलने से पहले, उसके पश्चात तथा मिथ्या बोलते समय भी वह दुःखी होता है और उसका अन्त (परिणाम) भी दुःखपूर्ण होता है। इस प्रकार अदत्त ग्रहण का आचरण करता हुआ वह स्पर्श में अतृप्त दुःखी और निराश्रित हो जाता है ||८३॥ Before, after and while speaking untruth he becomes sorrowful and its consequences are also painful. Thus discontented in pleasant touches and stealing he becomes sorrowful and protectionless. (83) फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥८४ ॥ इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त (सदैव रचे-पचे रहने वाले) व्यक्ति को किंचित् मात्र, कभी भी, कैसे सुख की प्राप्ति हो सकती है ? जिसके लिए दुःख सहा जाता है उसका उपभोग करते समय भी दुःख और क्लेश (का अनुभव) ही होता है ॥८४॥ Thus the person excessively addicted to pleasant touches, how can he get a bit of delight, for obtaining which he suffers so much pains, and while enjoying those touches he feels only misery. (84) एमेव फासम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८५॥ इसी तरह जो (अमनोज्ञ) स्पर्श के प्रति अधिक द्वेष करता है, वह भी दुःख परम्पराओं को प्राप्त करता है और द्वेष से आपूर्ण हृदय वाला वह जिस प्रकार के कर्मों का संचय (उपार्जन) करता है वही कर्मदलिक विपाक के समय दुःख रूप हो जाते हैं ॥८५॥ In the same way, who bitterly hates unpleasant touches, he gets chains of sufferings and with hateful mind acquires those karmas, which cause pains at the time of fruition. (85) फासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥८६॥ स्पर्श में आसक्त नहीं होने वाला मनुष्य अवसादग्रस्त नहीं होता। जिस प्रकार जल में रहता हुआ कमल-पत्र जल में लिप्त नहीं होता। उसी प्रकार संसार में रहता हुआ वह मानव इस दुःख-संपात की परम्परा में लिप्त नहीं होता ॥८६॥ Who is not addicted to touches, he does not become sorrowful. As the lotus leaf is not moistened by water, so that person is not effected by chains of pains, yet living in this world. (86) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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