Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 546
________________ तर सचित्र उत्तराध्ययन सत्र द्वात्रिंश अध्ययन [४४२ भावाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिटे ॥९२॥ . (प्रिय) भावों की आशा का अनुगमन करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार के चराचर जीवों की हिंसा करता है। अपने स्वार्थ को ही सर्वोच्च महत्व देने वाला, राग-द्वेष संपीड़ित-क्लिष्ट अज्ञानी जीव उन (त्रस-स्थावर) जीवों को भिन्न-भिन्न प्रकार से परितापित और पीड़ित करता है ॥९२॥ Sharply desirous and indulged in pleasant feelings, such person injures the mobile and immobile living beings by various methods. Taking only his own pleonasm supermost and agitated by attachment and detachment that ignorant person torments and tortures them by different methods. (92) भावाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥९३॥ (प्रिय) भावों में अनुरक्ति और परिग्रहण में ममत्व होने के कारण मानव उनका उत्पादन, रक्षण और सन्नियोग करता है किन्तु उनका व्यय और वियोग भी होता है। इन सब में सुख कहाँ हैं? उनका उपभोग करते समय भी उसे अतृप्ति ही प्राप्त होती है ॥९३॥ Due to much more fascination to pleasant feelings and myness and seizing, how can he be delighted in producing, keeping, using, losing and missing. Where is joy in all these? At the moment of enjoying even, he gets only dissatisfaction. (93) भावे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिँ । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥९४॥ भाव में अतृप्त और परिग्रह में अत्यधिक आसक्त व्यक्ति को संतुष्टि नहीं होती। असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त होकर वह दूसरे का बिना दिया हुआ पदार्थ ग्रहण कर लेता है, अदत्तादान का आचरण करता है ॥९४॥ Dissatisfied in pleasant feelings and deeply indulged in seizing them, he can not be contented. Suffering from pain caused by dissatisfaction and overwrought by greed he takes others' things ungiven by them-he steals those things. (94) तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥९५॥ ___ वह तृष्णा से अभिभूत (पराजित) होकर चोरी करता है और भाव-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-लोभदोष के कारण उसका माया-मृषा (छल सहित झूठ बोलने की प्रवृत्ति) बढ़ जाता है; (किन्तु) माया-मृषा से भी उसकी दुःख से मुक्ति नहीं होती-दुःख नहीं मिटता ।।९५॥ He steals becoming overwhelmed by keen desire and dissatisfies in seizing the feelings. By the blemishes of dissatisfaction and greediness his tendency of speaking deceitful untruth goes on increasing, but thereby he can not get rid of his miseries. (95) Jain Educalonterational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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