Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 549
________________ ४४५] द्वात्रिंश अध्ययन सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र तओ से जायन्ति पओयणाई, निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि । सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा, तप्पच्चयं उज्जमए य रागी ॥१०५॥ तब (कषायों, नोकषायों, विकारों से ग्रस्त होने के पश्चात्) उस सुखाभिलाषी साधक अथवा व्यक्ति को मोहरूपी महासागर में डुबोने के लिए, दुःखों के निवारण के लिए (आरम्भ, परिग्रह, आदि रूप) अनेक प्रयोजन उत्पन्न-उपस्थित होते हैं, वह रागी (द्वेषी तथा मोही भी) व्यक्ति उन कल्पित दुःखों से मुक्त होने का प्रयास-उद्यम करता है ॥१०५॥ Then (gripped by passions and auxiliary passions) for submerging that comfort-wisher adept or person, in the ocean of infatuation, forwarding off the imaginary miseries-many plans take place; and that addicted (also aversed and infatuated) person also endeavours to get rid of those imaginary miseries. (105) विरज्जमाणस्स य इन्दियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा । न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा, निव्वत्तयन्ती अमणुन्नयं वा ॥१०६॥ शब्द आदि जितने भी इन्द्रियों के विषय हैं, वे विरक्त चित्त वाले व्यक्ति के मन में अमनोज्ञता अथवा मनोज्ञता का भाव उत्पन्न नहीं करते हैं ॥१०६॥ All the objects of senses, like-sound etc., do not generate the pleasant and unpleasant feelings in the mind of an indifferent person. (106) __ एवं ससंकप्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्टियस्स । अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा ॥१०७॥ मेरे अपने ही संकल्प-राग-द्वेष, मोह रूप अध्यवसाय तथा विकल्प-मनोज्ञ-अमनोज्ञ की कल्पनाएँ ही सभी प्रकार के दोषों का कारण हैं, जो इस प्रकार के चिन्तन में उद्यत होता है, तथा इन्द्रिय विषय दुःखों के मूल नहीं हैं-जो इस प्रकार का संकल्प करता है। उसके मन में समता उत्पन्न होती है और उससे काम गुणों में होने वाली तृष्णा क्षीण हो जाती है ||१0७॥ My own resolutions-thoughts of attachment, detachment and infatuation-and ambiguities-imagination of pleasant and unpleasant, are causes of all faults and defects-who ponders like this, and resolves that the objects of senses are not the root causes of pains and miseries; the equanimity takes place and thereby the desire of sensual pleasures diminishes and destructs. (107) स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं । तहेव जं दसणमावरेइ, जं चऽन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥१०८॥ वह कृतकृत्य बना हुआ वीतराग आत्मा क्षणभर में (अल्प समय में) ज्ञानावरण कर्म को क्षीण करता है तथा दर्शन का आवरण करने वाले दर्शनावरण कर्म एवं अन्तराय कर्म को नष्ट कर देता है ॥१०८॥ That beholden (Krtakrtya), attachment-free soul in a moment (in a short period) destructs the knowledge obstructing, perception obstructing and power or energy hindering karmas. (108) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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